साल 2001 में दिल्ली में 25 जुलाई को डाकू से राजनेता बनी फूलन देवी को बंगले के बाहर ही उनकी हत्या कर दी गई थी। चंबल की इस शेरनी के बारे में कहा जा सकता है कि अस्सी के दशक में गब्बर सिंह से ज्यादा फूलन देवी का खौफ लोगों में था। बहमई में उन्होंने 22 लोगों को एक साथ खड़ा करके गोली मार दी थी। बाद में फूलन देवी ने कुछ शर्तों के साथ आत्मसमर्पण किया था। कहने का मतलब यह है कि किसी भी अपराधी को सामान्य मौत नहीं मिलती है। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपराधियों पर ‘जीरो टॉलरेंस’ की नीति अपनाए हुए हैं। विकास दुबे मामले में भी यही हुआ है। शायद यही कारण है कि विकास दुबे अपने बेटे को अपनी काली करतूत से दूर रखने के लिए विदेश पढ़ने के लिए भेज दिया। विकास दुबे बेहद जघन्य अपराधी था। उसकी स्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब एक बहुत बड़े हत्याकांड में उस पर मुकदमा अदालत में पेश हुआ तो इस हत्याकांड के चश्मदीद गवाह एक पुलिस वाले तक ने अदालत में उसके खिलाफ गवाही नहीं दीऔर विकास दुबे बरी हो गया।
अपराध करने के बाद कैसे बचा जाता है यह बात वह बखूबी जानता था। यही कारण था कि विकास दुबे लगभग तीस सालों से संज्ञेय अपराध करने के बावजूद बचता रहा। चाहे वो थाने में घुसकर श्रम संविदा बोर्ड के चेयरमैन और दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री संतोष शुक्ला की थाने के अंदर ही हत्या का मामला हो या फिर कोई और गंभीर अपराध।
एक बात और सामने आई थी कि एक समय विकास ने अपने स्कूल के प्रिंसिपल की भी हत्या कर दी थी, उस मामले में भी उसे सजा नहीं हुई थी। राज्यमंत्री की हत्या के समय तो थाने में लगभग 20 लोग मौजूद थे मगर कोई गवाही देने को तैयार नहीं हुआ था। बीती 2-3 जुलाई को कानपुर के बिकरू गांव में 8 पुलिसकर्मियों की हत्या का आरोपित विकास बहुत ही नाटकीय ढंग से पुलिस की आंखों में धूल झोंकता रहा। अब जब उसे उज्जैन में पकड़ा गया तो उसके शातिराना दिमाग का खेल भी सामने आ गया था।
वह इतना खतरनाक था कि उसने अपने गांव के लोगों की जमीन पर कब्जा करके वहां अपना किले जैसा घर बना रखा था जहां वो व उसके पिट्ठू रहा करते थे। कहते है कि उसके लिए एक पास के थानेदार ने अपने ही साथ के पुलिस वालो के खिलाफ मुखबरी की व उसके कारण आठ अधिकारी मारे गए। वह समय रहते साफ बच निकला। इससे उसके आतंक व उसके प्रति लोगों के मन में भरे डर का अंदाजा लगाया जा सकता है। अफवाह तो यह भी थी कि उसने गोलीकांड में मारे गए एक आला पुलिस अफसर के हाथ पैर भी काट दिए थे ताकि पुलिस को और ज्यादा आतंकित किया जा सके।
मुझे याद है जब पंजाब में आतंकवाद का दौर खत्म करने के लिए केपीएस गिल ने अपना अभियान शुरू किया तो वे इलाके के जाने माने आतंकवादी के घर पर स्थानीय बदमाशों से हमला कर उसका पैसा साजो-सामान लूटा देते थे। इस काम में भी स्थानीय आम नागरिक की मदद लेते थे। तब एक बार शाम को उन्होंने आपसी बातचीत में कहा था कि मेरा काम सिर्फ आतंकवादियों को सबक सिखाना ही नहीं बल्कि उन्हें व इलाके के लोगों के लिए सार्वजनिक संदेश भी देना है।
आम आदमी को उसके घर पर हमलों को लेकर उसका सामान लूटवा कर हम यह सोच देना चाहते हैं कि उनकी मनमानी व जनता पर छाया डर समाप्त हो गया है व अब आम आदमी भी उससे बदला लेने के लिए तैयार हो चुका है। उनकी रणनीति रंग लाई व देखते ही देखते तमाम जाने-माने आतंकवादी मारे गए। एक आला पुलिस अधिकारी का कहना था कि कुख्यात बदमाशों के डर से उनके खिलाफ कोई गवाही देने नहीं आता क्योंकि उसके बदले में उसके मारे जाने से डरते थे व आराम से अपराधी बरी हो जाते। इसको मिटाने का एक ही तरीका है कि इन्हें इस धरती से साफ कर दिया जाए। सुनने में यह बात मानवधिकार समर्थको को बुरी लग सकती है मगर इनका और कोई ईलाज नहीं है।
हम यह भूल जाते है संतोष शुक्ला को तो उसने थाने के अंदर मारा था। पुलिस वाले उसके आतंक के कारण उसके लिए मुखबरी करने लगे व उन्हें सबक सिखाने के लिए उसने दबिश देने आए पुलिस के अधिकारियों को चुन-चुन कर मारा था। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह कितना खूंखार था। अब तक की जांच में यह पता चल चुका है कि पुलिस द्वारा दबिश किए जाने की खबर उसके पास के ही एक थाने के पुलिस अधिकारी ने दी थी।
पुलिस के मुताबिक उसने पुलिस के लोगों को उन्हीं के हथियारो से हत्या करके नक्सली माओवादी द्वारा अपनाई जाने वाली आतंक की नीति का परिचय दिया। उसने उन पर हमला करने के पहले अपने साथियो को घर बुलवा लिया था व घर की छत पर उन्हें तैनात कर नीचे मुकाबला करने आए पुलिस दल पर हमला किया था। पुलिस कर्मियो के हथियारो से उनके सिर कंधे व छाती पर गोलियां मारी गई थी। उसके विशाल घर में छुपने के लिए बंकर बना हुआ था व उसकी दीवार 12 फुट ऊंची थी जिसके चारो और कंटीले कंटसेनटीज तार लगे थे। जिनका आमतौर पर सेना सीमा पर इस्तेमाल करती है।
उसके घर में चार काफी बड़े-बड़े कमरे थे जिनमें ऐशो-आराम का सामान उपलब्ध था। घर में हर कोण पर 16 सीसीटीवी कैमरे लगे हुए थे ताकि वह आने जाने वालों पर नजर रख सके। वह भागते समय इन कैमरो की वीडियो रिकार्डिंग ले जाने में कामयाब रहा। जहां एक और योगी सरकार अपने कार्यकाल के दौरान बड़ी तादाद में अपराधियों के सफाया का दावा कर रही है वहीं विकास दुबे का यह हमला सरकार व राज के कानून की हालात बयां करते हैं।
सूत्रों के अनुसार दुबे के साथ कुछ और लोग थे, जो उज्जैन में ही ठहरे हुए थे। वहां पर पुलिस को यूपी की दो कारें भी मिली थीं। इसमें शुभम नामक व्यक्ति का नाम भी सामने आया। कहा जा रहा है कि ये सारा खेल शातिराना दिमाग वालों का रचा हुआ था। पुलिस ने विकास के साथ मौजूद दो स्थानीय व्यक्तियों को भी गिरफ्तार किया था। महाकाल मंदिर प्रांगण के बाहर लखनऊ के रस्जिट्रेशन नम्बर की गाड़ी मिलने के बाद अनुमान लगाया जा रहा था कि विकास दुबे काफी तैयारी के साथ वहां पहुंचा था।
उज्जैन में भी जब वो पकड़ा गया था तो उसके पास एक बैग मिला था। बैग में कुछ कपड़े, एक मोबाइल, उसका चार्जर और कुछ कागजात थे। विकास दुबे भागने के दौरान इसी मोबाइल फोन का प्रयोग कर रहा था। इसी मोबाइल से विकास दुबे ने कई लोगों से संपर्क भी किया था। अपने लोगों से सम्पर्क करने के बाद विकास फोन ऑफ कर लेता था और फिर फौरन अपनी जगह बदल लेता था।
विकास फर्जी आइडी लेकर उज्जैन के महाकाल मंदिर पहुंचा था। शंका होने पर जब उसे पुलिस चौकी लाया गया, तो उसने अपना नाम शुभम् बताया। आइडी में भी यही नाम था। इस पर पुलिस अफसर ने उससे मोबाइल नंबर लेकर डायल किया तो ट्रू कॉलर में दुबे लिखा आया। जब पुलिस ने सख्ती की तो शातिर गैंगस्टर ने यह कबूल लिया कि वह विकास दुबे है। महाकाल चौकी से थाने जाते समय उसने चिल्ला-चिल्लाकर कहा कि मैं विकास दुबे, कानपुर वाला।
अपराध की दुनिया से जुड़े लोगों का कहना है कि जिस तरह से विकास दूबे ने उज्जैन में पकड़े जाने पर चीख-चीखकर ये बताया कि वो कानपुर वाला विकास दुबे है उससे ये बात साफ हो जाती है कि उसे ऐसा करने के लिए किसी मंझे हुए वकील की ओर से सिखाया गया था। सुप्रीम कोर्ट के सीनियर क्रिमिनल एडवोकेट डीबी गोस्वामी का कहना है कि अभी तक विकास दुबे के बारे में जो चीजें सामने आ रही थीं उससे यही साबित हो रहा था कि वो एक शातिर अपराधी था। उसे अपराध करना और उससे बचना बखूबी आता था।
उनका कहना है कि आमतौर पर अपराधी अपराध तो कर लेते हैं मगर वो उससे बच नहीं पाते हैं मगर विकास दुबे का इतिहास देखा जाए तो वो अब तक तमाम तरह के अपराध करने के बाद उससे हमेशा बचता ही रहा था। यदि किसी वजह से वो अपराध करने के बाद पुलिस की गिरफ्त में आ भी गया था तो उसके खिलाफ सबूत नहीं होते थे, यदि सबूत मिल गए तो केस डायरी से अपना नाम तक हटवा लिया करता था। चूंकि अपराध करने के बाद पुलिस ही सारी कानूनी धाराएं लगाती है वो ही फाइल तैयार करती है, उसमें बदलाव करने, धाराएं हटवा लेने और चीजों को मैनेज कर लेना उसे बखूबी आता था।
एक बात और गौर करने वाली है कि विकास को ये पता था कि अपराध की दुनिया में कितनी तरह की मुसीबतें और टेंशन है इस वजह से उसने अपने एक बेटे को पढ़ने के लिए इंग्लैड भेजा हुआ था जिससे बेटा इस जरायम की दुनिया से दूर रहे। बेटा वहां पर मेडिकल की पढ़ाई कर रहा है। ये एक शातिर बदमाश का ही दिमाग था कि उसने अपने पैतृक गांव को ही अपनी कर्म स्थली बनाए रखा और वहां पर अपना नेटवर्क मजबूत किया हुआ था।