पिछले 15 साल के शासन के दौरान नितिश कुमार की विकास पुरुष के रूप में ब्रांडिंग हुई. लेकिन पिछले कुछ दिनों के भीतर एनडीए का यह सबसे बड़ा ब्रांड मानों मार्किट से लुप्त कर दिया गया है. बिहार के चुनावों में एकाएक नितिश की जगह प्रधानम्रंत्री नरेंदर मोदी का चेहरा ही दिखाई दे रहा है, बिहार के शहरों में लगे अधिकतर होर्डिंगों से नितिश का चेहरा गायब है. चुनाव महागठबंघन बनाम मोदी हो गया है.
जसविंदर सिद्धू
आजादी की लड़ाई में ऐतिहासिक हिस्सेदारी रखने वाले बिहार के पास इन चुनावों में एक बार फिर से देश के बदले माहौल में राजनैतिक दिशा तय करने का मौका है.
राजनैतिक लिहाज से सबसे जागरुक वोटर होने के नाते बिहार के लोग इस मौके को किस तरह ऐतिहासिक परिणाम के रुप में बदलते हैं, इसके लिए आखिरी चरण के चुनाव के बाद 10 नवंबर को घोषित होने वाले नतीजों तक इंतजार करना होगा.
चुनाव प्रचार के दौरान बिहार सरकार के अखबारों में छपे एक विजापन पर नजर पड़ी. ‘विकास पुरुष’ मुख्यमंत्री नितिश कुमार के फोटो के साथ छपे इस विज्ञापन में दावा किया गया था कि बिहार सरकार ने लॉकडाउन के बाद बिहार के प्रवासी मजदूरों को दूसरे राज्यों से घर वापिस लाने का पूरा इंतजाम किया.
अन्य राज्यों से हजारों किलोमीटर पैदल चलने के बाद अपने घर पहुंचे बिहार के मजदूरों के साथ इससे बड़ा मजाक नहीं हो सकता. शायद व्यवस्था को लगता है कि किसी को कभी भी, कैसे भी मूर्ख बनाया जा सकता है. हजारों मील चलने के कारण पैरों के छालों से लेकर प्रवासी मजदूरों पर सेनिटाजेशन के नाम पर कैमिकल के छिड़काव की तसवीरे गुगल पर एक क्लिक पर देखी जा सकती हैं.
अभी कुछ हफ्ते पहले की ही बात है जब केंद्र ने संसद में कहा कि उसके पास इसका डाटा ही नहीं है कि कितने प्रवासी मजदूर लॉकडाउन के दौरान सड़क पर थे.
केंद्र सरकार के शीर्ष वकील तुषार मेहता ने तो सुप्रीम कोर्ट में हल्फनामा दिया कि कोई भी मजदूर सड़क पर पैदल नहीं जा रहा. इससे कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि प्रवासी मजदूरों के साथ कैसा सुलूक किया गया.
देश में सड़क सुरक्षा में सुधार पर काम करने वाली संस्था सेव लाइफ फाउंडेशन के अनुसार महज 25 मार्च और 31 मई के बीच 198 प्रवासी मजदूरों की सड़क हादसों में मौत हुई.
अब सबसे अहम सवाल है कि क्या बिहार के मेहनतकश लोग अपने साथ हुए इस जुल्म को भूल जाएंगे और महज धर्म या चेहरे के नाम पर अपना निर्णायक वोट देंगे!
नितिश कुमार और उसकी सहयोगी भारतीय जनता पार्टी की ओर से लिए कुछ फैसलों से लगता है कि वह इस संभावित खतरे को हल्के से लेने की स्थिति में नहीं है.
पिछले 15 साल के शासन के दौरान नितिश कुमार की विकास पुरुष के रूप में ब्रांडिंग हुई. लेकिन पिछले दस दिनों के भीतर एनडीए का यह सबसे बड़ा ब्रांड मानों मार्किट से लुप्त कर दिया गया है.
बिहार के चुनावों में एकाएक नितिश की जगह प्रधानम्रंत्री नरेंदर मोदी का चेहरा ही दिखाई दे रहा है, बिहार के शहरों में लगे अधिकतर होर्डिंगों से नितिश का चेहरा गायब है. चुनाव महागठबंघन बनाम मोदी हो चुका है.
यह वही मोदी है जिनके साथ नितिश ने कभी मंच सांझा करने के इनकार कर दिया था.
यह कैसे, कब और क्यों हुआ, यह शोध का विषय है लेकिन इस बात पर गौर करना जरुरी है मोदी को विकास की जगह राममंदिर का निर्माण दिखाना पड़ रहा है. वह भी ऐसे में जब बिहार के लोग रोजगार, नौकरी की बात कर रहे हैं.
नितिश और भाजपा में आत्मविश्वास की कमी है.इसका कारण बिहार के लोगों की बेहतर राजनैतिक समझ है.
इस प्रदेश ने 1857 में देश की आजादी की लड़ाई को दस कदम आगे बढ़कर लड़ने वाला वीर कुंवर सिंह जैसा यौद्धा दिया.
1917 में महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ बिहार की घरती चंपारण से ही पहला सत्याग्रह शुरु किया था जिसने भारत की लड़ाई को बिलकुल नया आयाम दिया.
आजादी में अहम और मजबूत हिस्सेदारी रखने का इतिहास संजोय बिहार के लोग मौजूदा विषम परिस्थितियों में देश को क्या नई राह दिखा पाएंगे, सभी की निगाहें इस पर लगी हैं.
हाल ही के महीनों में बिहार ने जिंदगियां तबाह करने वाली बाढ़ देखी, अपने मजदूरों की दिलों को रुला देने वाली वापसी देखी. बेराजगारी वहां के लोगों की जिंदगियों पर हावी है. कामधंधों को जैसे दीमक खा चुका है.
ऐसे में चंपारण जैसे ऐतिहासिक सत्याग्रह का गवाह बने बिहार के लोग सब कुछ भूल कर फिर वाट्सऐप पर चलने वाले जालसाजी भरे झूठ-फरेब वाले प्रचार के झांसे में आकर अपना वोट देंगे या नहीं, इस ऐतिहासिक क्षण का साक्षी बनने के लिए हम सभी को 10 नवंबर तक इंतजार करना होगा.