राजेश रपरिया
आजादी के बाद से देश में खाद्यान्नों के उत्पादन में रिकॉर्ड वृद्धि हुई है। खाद्यान्नों का उत्पादन 1950-51 में महज 5.08 करोड़ टन था, जो 2023-24 में बढ़ कर 33.22 करोड़ टन हो गया। कृषि उत्पादकता में वृद्धि हुई है। खाद्यान्नों के अधिक उत्पादन से देश अकाल के अभिशाप से मुक्त हो चुका है। प्रति व्यक्ति अनाज, खाद्य तेल और फल-सब्जी की उपलब्धता में काफी सुधार आया है। पर किसानों की आय में कोई तसल्लीबख्श वृद्धि नहीं हुई है।
सर्वोच्च न्यायालय की ओर से गठित एक समिति ने नवंबर 2024 में जो आँकड़े पेश किये हैं, वे हैरान-परेशान करने वाले हैं। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि किसान खेती से प्रतिदिन महज 27 रुपये ही अर्जित कर पाता है। समिति की यह रिपोर्ट सरकार के 2018-19 में किये गये एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण – ‘सिचुएशन असेसमेंट ऑफ एग्रीकल्चर हाउसहोल्ड्स इन रूरल इंडिया’ पर आधारित है। इसमें बताया गया है कि कृषि परिवारों की औसत आय 10,218 रुपये है। रिपोर्ट बताती है कि घटती आय से किसानों के सिर पर कर्ज का काफी बोझ बढ़ गया है। कृषि आय में गिरावट, उत्पादन लागत में वृद्धि और रोजगार के घटते अवसरों ने किसानों की समस्याओं को और दुस्साध्य बना दिया है।
खास तौर से छोटे और सीमांत किसानों और कृषि मजदूरों पर कर्ज कई गुना बढ़ गया है, जिससे किसानों और खेतिहर मजदूरों में आत्महत्या करने की संख्या में दुखदायी बढ़ोत्तरी हुई है। इस रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर कृषि क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों का सकल राष्ट्रीय उत्पादन में योगदान महज 15% रह गया है। इसके अलावा, छिपी हुई बेरोजगारी और वेतनविहीन श्रमिकों की उच्च दर इस कम आय का हिस्सा है।
राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) के 2021-22 के फाइनेंशियल इन्क्लूजन सर्वे में बताया गया है कि 2021-22 के कृषि वर्ष में कृषि से जुड़े परिवारों की मासिक आय 13,661 रुपये थी, जबकि कृषि परिवारों पर औसत कर्ज 91,231 रुपये था। यानी एक कृषि परिवार पर कर्ज का बोझ उसकी सकल मासिक आय का लगभग 7 गुना है।
एक कृषि परिवार का मासिक उपभोग व्यय 11,710 रुपये है। इस प्रकार 5 सदस्यों वाले औसत परिवार की शेष आय 1,951 रुपये ही बचती है, जो पहाड़-सा कर्ज उतारने के लिए नाकाफी है। नतीजतन वह कर्ज के दलदल में धँसता चला जाता है। लगभग यही दशा गैर-कृषि ग्रामीण परिवारों की भी है। ज्यादातर किसान और ग्रामीण परिवारों का जीवन कर्ज उतारने में ही बीत जाता है।
यह कड़वी हकीकत है कि किसानों की दैनिक आय देश की कानून-सम्मत अनिवार्य न्यूनतम मजदूरी 783 रुपये से भी कम है। मोदी सरकार ने किसानों की आर्थिक सहायता के लिए फरवरी 2019 के अंतरिम बजट में प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि की शुरुआत की थी। इसमें किसानों को 3 बराबर किस्तों में प्रति वर्ष 6,000 रुपये दिये जाने का प्रावधान है।
इस कार्यक्रम के लाभार्थियों की संख्या 2023-24 में 9.21 करोड़ थी। ध्यान रहे कि इसमें खेतिहर मजदूर शामिल नहीं हैं। शुरुआत में यह आर्थिक सहायता केवल छोटे और सीमांत किसानों के लिए थी, लेकिन बाद में सभी किसान इसमें शामिल कर लिये गये। जिससे इनकी संख्या 2018-19 के 3 करोड़ से बढ़ कर 2021-22 में 10.78 करोड़ हो गयी, जो बाद में घट कर 9.21 करोड़ रह गयी।
पिछले 5 सालों में औसत महँगाई दर ज्यादा रही है और कृषि लागत में काफी वृद्धि हुई है। इससे किसानों के लिए जीवन-यापन प्रतिदिन कठिन होता जा रहा है। प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि में आर्थिक सहायता बढ़ाना समय की माँग है। इससे ग्रामीण क्रय शक्ति को बल मिलेगा, जिससे कमजोर विकास दर को भी गति मिलेगी। ऐसी योजना खेतिहर मजदूरों के लिए भी शुरू करने की महती आवश्यकता है। प्रधानमंत्री मोदी 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाना चाहते हैं। प्रधानमंत्री का भी यही कहना है कि कृषि उत्पादकता और आय बढ़ाने से ही विकसित राष्ट्र का लक्ष्य साकार हो सकता है।
मध्य वर्ग का क्या?
देश में मध्य वर्ग ही ऐसा है, जो राजस्व संग्रह बढ़ाने के प्रयास में सबसे ज्यादा पिसता है। लेकिन जब बजट में राहत देने की बारी आती है, तो उसका नंबर सबसे अंत में होता है और कई बार मध्यवर्गीय आय करदाता का नंबर बजट में आता ही नहीं है। आय कर विभाग बड़े रसूख के साथ बताता है कि देश में आय करदाताओं की संख्या 2023-24 में बढ़ कर 10.4 करोड़ हो गयी है, जो 2014-15 में 5.7 करोड़ थी। आय कर विभाग का कहना है कि आय करदाता का मतलब ऐसे व्यक्ति से है, जो आय कर विवरणी (रिटर्न) दाखिल करता है। लेकिन इस संख्या के 98.5% लोग कोई आय कर नहीं देते हैं, केवल शून्य देयता का रिटर्न दाखिल करते हैं। इसके बाद भी इस अवधि में आय कर संग्रह में 293% का इजाफा हुआ है।
वर्ष 2014-15 में आय कर संग्रह तकरीबन 2.65 लाख करोड़ रुपये था, जो 2023-24 में बढ़ कर तकरीबन 10.45 लाख करोड़ रुपये हो गया। मध्यवर्गीय आय करदाताओं को यह जान कर हैरानी हो सकती है कि व्यक्तिगत आय कर संग्रह अब निगम कर (कॉर्पोरेट टैक्स) से भी ज्यादा हो गया है। निगम कर 2014-15 में करीब 4.28 लाख करोड़ रुपये था, जो 2023-24 में 112% बढ़ कर करीब 9.11 लाख करोड़ रुपये पर पहुँचा है। इस दरम्यान कॉर्पोरेट जगत को सरकार ने लाखों करोड़ रुपये की राहत दी है। उद्योग लगाने के नाम पर छूट अलग है, बैंकों का कर्ज नहीं लौटाने का बोनस अलग से है, जो गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (एनपीए) के नाम पर डाल दिया जाता है।
वैसे देश में मध्य वर्ग की आबादी 31% बतायी जाती है। वर्ष 2020-21 में 43.20 करोड़ लोग मध्य वर्ग में आते थे, जो 2030-31 में बढ़ कर 71.5 करोड़ हो जायेंगे। लेकिन आय कर देने वालों की संख्या कुल आबादी का महज 1.5-2.0% ही है। वर्ष 2022-23 में तकरीबन 7.4 करोड़ लोगों ने आय कर रिटर्न दाखिल किया, जिसमें से 5.16 करोड़ यानी लगभग 70% आय करदाताओं की देयता शून्य थी। इसका मतलब यह हुआ कि देश में 2.24 करोड़ लोग ही आय कर देते हैं, जो कुल आबादी का बमुश्किल 1.6% बैठता है।
यदि प्रत्यक्ष करों में व्यक्तिगत आय कर संग्रह अब निगम कर से ज्यादा हो गया है, तो 2024-25 के बजट दस्तावेजों के अनुसार 2023-24 से ही कुल आय कर संग्रह वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) से ज्यादा हो गया है। जीएसटी का बड़ा हिस्सा मध्यवर्गीय आय करदाताओं की जेब से ही जाता है। लेकिन इसके बाद भी इस वर्ग को सरकार की ओर से कोई निःशुल्क सेवा नहीं मिलती है। यह वर्ग महँगी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए अभिशप्त है। इन मध्यवर्गीय आय करदाताओं की कोई सुनवाई नहीं होती है, क्योंकि चुनावी राजनीति में इनकी अहमियत ना के बराबर है।
पिछले बजट में 10 लाख रुपये सालाना आय वर्ग को राहत प्रदान की गयी थी। नयी आय कर प्रणाली में मानक कटौती (स्टैंडर्ड डिडक्शन) बढ़ा कर सालाना 75,000 रुपये की गयी थी। नयी आय कर प्रणाली से आय कर रिटर्न दाखिल करने वालों का अब बहुमत है, क्योंकि अब लगभग दो-तिहाई आय करदाता नयी आय कर प्रणाली के माध्यम से ही रिटर्न दाखिल करते हैं। लेकिन पुरानी आय कर प्रणाली में मिलने वाली 80सीसी और —- जैसी कोई सुविधा नयी आय कर प्रणाली में नहीं है, जिसमें स्वास्थ्य और शिक्षा खर्चों के लिए आय कर में राहत का प्रावधान है। पिछले 10-15 सालों से महँगाई शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में ही सबसे ज्यादा आयी है। मध्य वर्ग की आय का एक बड़ा हिस्सा शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च हो जाता है। यह बात सरकार का हर मंत्री-संतरी जानता है। मध्य वर्ग के ऊपर ही देश की अर्थव्यवस्था का वजूद टिका हुआ है। पिछले कुछ सालों से महँगाई और नाम मात्र की वेतन वृद्धि से इस वर्ग की क्रय शक्ति में भारी गिरावट आयी है, जिसका असर उपभोक्ता माँग और निवेश पर पड़ा है। सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार भी बेहिचक इस तथ्य को स्वीकार करते हैं।
समय की आवश्यकता है कि नयी आय कर प्रणाली में शिक्षा और स्वास्थ्य खर्चों पर राहत प्रदान की जाये। उद्योग जगत को लाखों करोड़ रुपये की छूटें देने के बाद भी न तो देश में निवेश की दर बढ़ रही है, न ही रोजगार। अलबत्ता कंपनियों के लाभ में पिछले 4-5 सालों में भारी वृद्धि हुई है। कमजोर और वंचित वर्ग के लिए शायद ही कोई राहत आगामी बजट में हो। केंद्र सरकार 80 करोड़ लोगों को मुफ्त में 5 किलोग्राम अनाज मुफ्त में दे रही है। इस सहायता में कटौती की कोई संभावना नहीं है। नकदी सहायता बढ़ने की उम्मीद कम है, क्योंकि तमाम राज्य सरकारों में मतदाताओं को नकद सहायता देने की होड़ लगी हुई है।
आगामी बजट कैसा होगा? यह इस बात पर ज्यादा निर्भर होगा कि चालू वित्त-वर्ष में देश की विकास दर क्या होगी। यदि राजस्व संग्रह में कोई ज्यादा घट-बढ़ नहीं हुई, तो राजकोषीय घाटा (फिस्कल डेफिसिट) को लक्ष्य के भीतर रखने में केंद्र सरकार को कोई दिक्कत नहीं आनी चाहिए। पूँजीगत प्राप्तियों (कैपिटल रिसीप्ट) में कोई कमी आती है, तो उसकी पूर्ति मंत्रालयों के बचे हुए बजट आवंटन से हो सकती है।
अनेक मंत्रालय आवंटित बजट राशि का उपयोग नहीं कर पाते हैं। ऐसे मंत्रालयों के शेष से राजकोषीय घाटे को लक्ष्य के अंदर रखने में मदद मिल सकती है। चालू वित्त-वर्ष में नामित विकास दर (नोमिनल जीडीपी ग्रोथ) 10.5% से कम रहने पर बजट का गणित गड़बड़ा जायेगा, जिसका असर आगामी बजट की गणनाओं पर पड़ना स्वाभाविक होगा।