जनजीवन ब्यूरो/ नई दिल्ली। पहलगाम की घटना के बाद ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की सफलता ने देश की जनता के मन में मोदी सरकार के प्रति असीम प्रेमभाव को जगाने का काम किया। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत जनता सेना की सफलता पर उत्साहित थी। इसका श्रेय भी सरकार को दिया जा रहा था। सरकार भले ही कूटनीतिक स्तर को ध्यान में रखकर फैसले लिया करती हो, पर जनता इस बार पाकिस्तान से आर-पार के मूड में थी। ऑपरेशन सिंदूर ने देश के नागरिकों के मन में यह विश्वास जगा दिया था कि भारत अब केवल सीमा की रक्षा तक सीमित नहीं, बल्कि पाक अधिकृत कश्मीर को वापस लेने की दिशा में भी सक्रिय हो सकता है। भारत की सेना ने जिस सटीकता और सफलता से कार्यवाही की, वह रणनीतिक दृष्टि से असाधारण थी। इसे 1999 के कारगिल युद्ध के बाद सबसे तेज और प्रभावी कार्रवाई बताया गया। लेकिन सीजफायर की अचानक घोषणा ने इस उत्साह को ठंडा कर दिया। यह फैसला जनता के लिए न केवल अप्रत्याशित था, बल्कि उसकी राष्ट्रवादी भावनाओं पर भी आघात था। यही वह क्षण था, जब एक ‘विजेता सरकार’ की छवि एक ‘संशयित नेतृत्व’ में बदलने लगी।
ऐसे में सोशल मीडिया में आए कुछ समाचारों ने इस आशंका को और भी बढ़ाने का काम किया। भले ही सरकार की ओर से ऐसे समाचारों को ‘फेक’ बताया गया, पर तीव्र गति की सूचनाओं के इस युग में, जो बात समाज के सबसे निचले स्तर तक पहुंच जाती है, उसे दोबारा लोगों के मन से हटाना थोड़ा मुश्किल होता है। सोशल मीडिया से लेकर विपक्ष के भाषणों तक—हर जगह बस एक ही सवाल गूंजता रहा: ‘जब हम जीत रहे थे, तब झुके क्यों?’ विपक्ष और सोशल मीडिया के प्रभाव से जनता में फैले असंतोष से मोदी सरकार भी वाकिफ हो चुकी थी। सरकार अब अपनी छवि सुधारने के अभियान में जुट चुकी है, जबकि विपक्ष इस मौके का लाभ उठाने में लगा है।
इस पूरे घटनाक्रम में वैश्विक मंच पर भारत की कमजोर छवि की चर्चा होने लगी। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से पाकिस्तान को ऐसे मौके पर कर्ज मिलना भारत की कूटनीतिक असफलता माना जाने लगा। सरकार भी दबे स्वर में इसे स्वीकार कर रही है। के. वी. सुब्रमण्यन को आईएमएफ में कार्यकाल पूरा होने से पहले हटाना सरकार की इस स्वीकार्यता पर मुहर लगाने जैसा है। के. वी. सुब्रमण्यन 1 नवंबर 2022 को आईएमएफ में भारत के कार्यकारी निदेशक के रूप में नियुक्त किए गए थे। उनका कार्यकाल पूरा होने से पहले ही 4 मई 2025 को उन्हें आईएमएफ से वापस बुला लिया गया। आईएमएफ से उनका वापस बुलाया जाना एक दुर्लभ घटना थी, और सरकार ने आधिकारिक तौर पर उनकी बर्खास्तगी के कारणों का खुलासा नहीं किया है। इसका सीधा संकेत है कि सरकार ने मान लिया कि आईएमएफ में उनकी कूटनीति असफल रही।
सरकार ने आईएमएफ में मतदान का बहिष्कार किया, जबकि कर्ज देने के लिए हुए मतदान में भारत के कई सहयोगी देशों ने भी पाकिस्तान के पक्ष में मतदान किया। पाकिस्तान को आईएमएफ से मदद मिलना भारत के लिए एक रणनीतिक झटका माना गया। यह मदद केवल आर्थिक नहीं थी, बल्कि यह संकेत भी था कि वैश्विक समुदाय भारत की अपेक्षा पाकिस्तान को इस मामले में अधिक ‘विक्टिम’ के रूप में देख रहा है। अमेरिका, चीन, सऊदी अरब और तुर्की जैसे देशों ने आईएमएफ में पाकिस्तान के पक्ष में वोट दिया। जबकि पाकिस्तान को मिलने वाले इस कर्ज से पहले विदेश मंत्री निर्मला सीतारमण ने कई देशों की यात्रा कर कूटनीतिक पहल की थी। इसके बावजूद भारत को इसमें सफलता नहीं मिली। ऐसे में मोदी सरकार के इस मंत्री पर भी गाज गिर सकती है।
इस दौरान विदेश मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के बीच भी आपसी ‘टशन’ देखने को मिला। तीनों मंत्रालयों के बीच अपनी छवि चमकाने की होड़ मची हुई थी। रक्षा से संबंधित जानकारी भी विदेश मंत्रालय की ओर से दी जा रही थी। विदेश मंत्रालय रक्षा अधिकारियों को अपने यहां बुलाकर मीडिया के माध्यम से जानकारी देता रहा। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को इसमें कोई योगदान नहीं करने दिया गया। यहां तक कि उनके अधिकारियों तक को कोई जानकारी नहीं दी जाती थी। इससे मंत्रालयों के बीच आपसी नाराज़गी बढ़ने लगी। विदेश मंत्रालय ‘हीरो’ के रूप में देश के सामने आ रहा था। मंत्रियों के बीच इसको लेकर भी चर्चा होने लगी थी। लेकिन सीजफायर के बाद जब जन आक्रोश उफान पर था, तब विदेश मंत्रालय एकाएक पृष्ठभूमि में चला गया। सोशल मीडिया पर विदेश सचिव विक्रम मिसरी और उनके परिवार को अपशब्दों का सामना करना पड़ा। इसके बाद ब्रीफिंग की जिम्मेदारी वापस सूचना मंत्रालय को दी गई, जिसने सेना को अपनी मीडिया मंच मुहैया कराई। लेकिन तब तक सरकार की छवि को गहरा आघात लग चुका था। खासकर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बयानबाज़ी ने सरकार को असहज करने का काम किया। अमेरिकी राष्ट्रपति के बयानों ने मोदी सरकार की छवि को खराब करने में अहम भूमिका निभाई। तमाम कोशिशों के बावजूद मीडिया से जुड़े मंत्रालय ट्रंप की सूचनाओं को खारिज करने में सफल नहीं हो सके। इसका खामियाजा मंत्रालय को आने वाले दिनों में भुगतना पड़ सकता है।
सरकार अपनी छवि सुधारने के लिए कुछ अप्रत्याशित कदम उठा सकती है। इसमें मंत्रिमंडल में फेरबदल जैसे कदम प्रमुख होंगे। विदेश मंत्रालय, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय और वित्त मंत्रालय में व्यापक बदलाव देखने को मिल सकते हैं। इसके साथ ही कुछ बड़े राजनीतिक बदलाव भी संभव हैं। मोदी सरकार से जिस प्रकार कांग्रेस सांसद शशि थरूर की नज़दीकियां बढ़ रही हैं, वे आने वाले राजनीतिक बदलावों के संकेत हैं। वैसे भी कांग्रेस शशि थरूर से काफी नाराज़ चल रही है। ऐसे में यदि थरूर भाजपा का दामन थाम लें, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा। सरकार को विदेश मंत्रालय में बदलाव करने हैं। थरूर की अंतरराष्ट्रीय छवि, भाषाई दक्षता और संयुक्त राष्ट्र में काम करने का अनुभव उन्हें विदेश मंत्रालय के लिए उपयुक्त विकल्प बनाता है। अगर ऐसा होता है, तो यह एस. जयशंकर के लिए खतरे की घंटी हो सकता है।
अब सरकार के सामने दोहरी चुनौती है—जनता का विश्वास दोबारा जीतना और वैश्विक मंच पर भारत की विश्वसनीयता बहाल करना। इस पूरे मामले में सरकार को अपनी छवि सुधारने के अलावा विपक्ष को भी बढ़त लेने से रोकना होगा। इसी को ध्यान में रखते हुए वैश्विक मंच पर भेजे जाने वाले सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में शशि थरूर को मोदी सरकार की ओर से चुना गया। इतना ही नहीं, उन्हें अमेरिका जाने वाले प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने का अवसर भी दिया गया। जबकि कांग्रेस की ओर से भेजे गए नामों की सूची में शशि थरूर का नाम शामिल नहीं था। मोदी सरकार ने कूटनीति में राजनीति का रास्ता तलाशते हुए यह फैसला लिया। इस पर कांग्रेस का आगबबूला होना स्वाभाविक था। लेकिन आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में सरकार के इस फैसले पर सिर्फ नाराज़गी जाहिर करने के अलावा वह कुछ कर भी नहीं सकती। भाजपा ने भी अपनी ओर से पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को 1999 में ऐसे ही एक प्रतिनिधिमंडल में भेजने का उदाहरण देकर कांग्रेस की आलोचना को कमजोर कर दिया।
‘ऑपरेशन सिंदूर’ की सफलता ने मोदी सरकार को जनता के बीच जबरदस्त समर्थन दिलाया, लेकिन अचानक हुए सीजफायर और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मिली असफलताओं ने इस जन समर्थन को डगमगा दिया। सरकार अब अपनी गिरती छवि को संवारने और विपक्ष को संभालने के दोहरे दबाव में है। यदि आने वाले दिनों में मंत्रिमंडल फेरबदल, नीतिगत सुधार और रणनीतिक संतुलन जैसे कदम नहीं उठाए गए, तो यह हलचल और गहराएगी। शशि थरूर जैसे संभावित चेहरे सरकार की रणनीति में नया मोड़ ला सकते हैं, लेकिन जनता अब केवल चेहरे नहीं, परिणाम देखना चाहती है।