जनजीवन ब्यूरो / नई दिल्ली। पूर्व ट्रेनी IAS पूजा खेडकर का फर्जीवाड़े सामने आने के बाद फर्जी दस्तावजों के जरिए आईएएस तक की सरकारी नौकरी हासिल करने वालों को लेकर केंद्र सरकार पर आंच आ गई। लेकिन दुखद पहलू यह है कि भारत सरकार के कार्मिक, लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय के अधीन काम करने वाले कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (DoPT) ने सिविल सेवा परीक्षा में आरक्षण का कथित रूप से दुरुपयोग करने वाले अपसरों के बारे में कोई पुख्ता जानकारी हासिल नहीं कर पाया है। कहा जा सकता है कि डीओपीटी इस मामले को गंभीरता से ना लेकर लीपापोती में लगा हुआ है। ना तो केंद्रीय मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह इस मामले पर जवाब दे रहे हैं और ना ही डीओपीटी की सचिव रचना शाह इस सवाल का जवाब साफ साफ नहीं दे रही हैं। जबकि सूत्रों का कहना है कि 54 अफसरों के खिलाफ शिकायतें सरकार के पास पहुंची है।
मोदी सरकार के 11 साल की उपलब्धियों को लेकर आयोजित संवाददाता सम्मेलन में जब फर्जी सर्टिफिकेट के सहारे आईएएस बनने वाले लोगों के बारे में सवाल पूछा गया तो डीओपीटी सचिव रचना शाह ने कहा एक ही मामला सामने आया था जिसमें कार्रवाई की गई है। डॉ. जितेंद्र सिंह कहते हैं कि लोग अपनी आय के बारे में सही सही जानकारी नहीं देते हैं। लोगों की आय की जानकारी निकालना कठिन काम है। एक तरफ बंधी हुई आय होती है तो दूसरी तरफ आय के अन्य साधन भी होते हैं जिसकी जानकारी उम्मीदवार नहीं देते हैं। इसलिए EWS केटेगरी का आकलन करना कठिन होता है।
आईएएस पूजा खेडकर के मामले की पूष्टि होने के बाद केंद्र सरकार ने खेडकर की सेवा समाप्त कर दी। अपनी बर्खास्तगी को पूजा ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और मामला विचारधीन है।
सोशल मीडिया पर सैकड़ों पोस्ट वायरल हो रही हैं जिनमें यूजर्स कथित तौर पर दस्तावेजों में फर्जीवाड़ा करने वाले अधिकारियों की तस्वीरें, आर्थिक स्थिति, पारिवारिक पृष्ठभूमि पोस्ट कर रहे हैं। ओबीसी और ईडब्ल्यूएस कोटे और दिव्यांगता आरक्षण के लिए वेरिफिकेशन सिस्टम पर सवाल उठाए जा रहे हैं। इस बीच, कई वास्तविक OBC और EWS उम्मीदवारों को अच्छी रैंक हासिल करने के बावजूद अखिल भारतीय सेवाओं से बाहर निकाले जाने के भी आरोप सामने आए हैं। ये फर्जीवाड़े न केवल आरक्षण प्रणाली की ईमानदारी को कमजोर करते हैं, बल्कि योग्य उम्मीदवारों को उनके उचित अवसरों से भी वंचित करते हैं। आरक्षण हमेशा से देश में शिक्षा और रोजगार क्षेत्रों में एक विवादास्पद और बहस का विषय रहा है। आरक्षण प्रणाली को ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों, जिनमें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) शामिल हैं, उन्हें आगे बढ़ाने के लिए शुरू किया गया था। 1980 में, मंडल आयोग ने सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी के लिए 27% आरक्षण की सिफारिश की, जिसे 1992 में लागू किया गया था। इसके बाद, भारतीय नौकरशाही में ओबीसी के लिए आरक्षण लाया गया। 1990 के दशक से पहले, आरक्षण केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिए था।