अमलेंदु भूषण खां / नई दिल्ली ।पाकिस्तान में नवाज़ शरीफ़ को प्रधानमंत्री के पद से हटाया जाना कई पाकिस्तानियों के लिए झटका हो सकता था, लेकिन अब तक वो ऐसी चीजों के आदी हो चुके हैं.
1947 से लेकर शुक्रवार 28 जुलाई 2017 को शरीफ़ के पद से बाहर होने तक, पाकिस्तान में 18 आम नागरिक प्रधानमंत्री बन चुके हैं.
इन सभी को बीच में ही मजबूरन पद छोड़कर जाना पड़ा. नवाज़ शरीफ तीसरी बार प्रधानमंत्री पद से कार्यकाल ख़त्म किए बिना हटे हैं.
अभी उनके लिए स्थितियां उतनी बदतर नहीं हैं जितनी 1999 में थी, जब वो सेना की चाल में उलझे थे.
तब उन्हें पहले जेल में बंद कर दिया गया था और बाद में निष्कासन की वजह से उन्हें सऊदी अरब में जाकर रहना पड़ा.
इस बार उनपर सुप्रीम कोर्ट ने शिकंजा कसा क्योंकि वह संयुक्त अरब अमीरात में मौजूद कंपनी कैपिटल एफ़ज़ेडई से हुई आमदनी और संपत्ति का ब्यौरा देने में नाकाम रहे थे.
चुनाव के नियमों के मुताबिक़, चुनाव लड़ने वाले हर शख्स को अपनी संपत्ति की पूरी जानकारी देनी ज़रूरी है.
नवाज़ शरीफ़ ने कोर्ट को बताया कि कंपनी में बतौर चेयरमैन उनकी पोजिशन सिर्फ सम्मानसूचक है, वह न तो इसके लिए कोई सैलरी लेते हैं और न ही कोई अन्य लाभ.
उन्होंने इस पर बरकरार रहने का फैसला इसलिए भी लिया क्योंकि इससे उन्हें यूएई का वीज़ा कभी भी मिल सकता है.
हालांकि बहुत से लोगों का मानना है कि प्रधानमंत्री पद से शरीफ़ को हटाए जाने के पीछे सिर्फ़ यही कारण नहीं है.
जाने-माने पत्रकार इम्तियाज़ आलम इसे ‘बकरी की चोरी’ जैसी कहावत से जोड़ते हैं जो 1948 के दौर में काफ़ी इस्तेमाल की गई थी, जब एक प्रांत के मुख्यमंत्री को पद से हटाना था.
दरअसल, कैपिटल एफ़ज़ेडई शरीफ़ परिवार की ऑफशोर कंपनियों या लंदन स्थिति प्रॉपर्टी से लिंक नहीं है, जोकि सुप्रीम कोर्ट की जांच का मुख्य केंद्र थी.
शरीफ़ के उन कंपनियों और संपत्तियों में शामिल होने का ख़ुलासा इंटरनेशनल कॉन्सॉर्टियम ऑफ़ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म (आईसीआईजे) ने बीते साल पनामा लीक्स के अपने दस्तावेज़ों में किया था.
ये दस्तावेज़ एक विशेष भ्रष्टाचार-निरोधी अदालत में अलग से सुनवाई के लिए भेजे गए हैं.
इसके पहले, सुप्रीम कोर्ट में चल रही मामले की सुनवाई के दौरान कई बार ये मुद्दा विवादों में घिरता नज़र आया था.
कहा जा रहा था कि मामला आपराधिक अदालत में सुना जाना चाहिए और सुप्रीम कोर्ट जो कि अपीलीय अदालत है, उसने इस पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया था.
हालांकि बाद में कोर्ट ने न सिर्फ़ याचिका स्वीकार कर ली बल्कि मामले की जांच के लिए ख़ुद कोशिश शुरू की. इसमें मिलिट्री की ख़ुफ़िया सेवा की भूमिका भी अहम थी.
राजनीति और सेना के बीच चलने वाली खींचतान के पाकिस्तान में लंबे इतिहास को भी इसकी वजह माना जा सकता है.
आजादी के तुरंत बाद 1947 में देश के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना की देखरेख में चलने वाली सरकार ने दो प्रांतों की सरकारों को बर्ख़ास्त कर दिया था.
दोनों सरकारें अविभाजित भारत में चुनी गई थीं.
1951 और 1958 के बीच सेना और सिविल ब्यूरोक्रेट्स के संयुक्त शासन में एक के बाद एक छह प्रधानमंत्रियों को पद से हटाया गया. यह वक़्त सेना के पहले वर्चस्व का था.
पाकिस्तान में पहली बार चुनाव 1970 में हुए और ज़ुल्फिकार अली भुट्टो पहले निर्वाचित प्रधानमंत्री बने. उन्होंने 1973 में सत्ता संभाली और सेना के तख़्तापलट की वजह से 1977 में पद से हटना पड़ा.
बाद में उन्हें हत्या के एक मामले में 1979 में फांसी की सज़ा दी गई.
तब से सेना का वर्चस्व कुछ-कुछ वक़्त में सत्ता पर आता रहा और उसी के हिसाब से क़ानून में भी बदलाव होते रहे.
सेना ने ज़्यादातर चीजें अपने मनमुताबिक गढ़ीं ताकि सत्ता में आने वाले आम नागरिक पर दबाव बना रहे. इसमें न्याय व्यवस्था की भी सहमति थी.
इस दौरान सेना ने बड़े स्तर पर बिजनेस और इंडस्ट्री शुरू कीं जिनपर स्टेट अथॉरिटी का कोई कंट्रोल नहीं है.
बहुत से लोगों का मानना है कि यह साम्राज्य तभी तक चल सकता है जबतक सेना का कंट्रोल बड़े स्तर की घरेलू और विदेशी नीतियों पर है, जैसे भारत, अफ़ग़ानिस्तान और पश्चिमी देशों से संबंध या फिर देश के अंदर राजनीतिक उद्देश्य और एक ख़ास तरह की देशभक्ति का एजेंडा.
इसके लिए यह भी कहा जाता है कि सेना ने हमेशा उन राजनेताओं को बचाया है जो उनकी नीतियों से सहमत होते हैं.
लेकिन राजनीति के अपने उतार-चढ़ाव हैं. एक बार नेता मुख्यधारा में आ गए तो वे अपने वोटर के लिए आर्थिक और अन्य मौकों को बढ़ाने की कोशिश करते हैं.
इसकी वजह से कई बार पाकिस्तान के नेता भारत और दूसरे पड़ोसी मुल्क़ों से संबंध सुधारने के लिए मजबूर हुए.
नवाज़ शरीफ़ के राजनीतिक सफ़र की शुरुआत सेना के साथ मिलकर सत्ता पलटने की कोशिशों से ही हुई थी.
उन्होंने 1970 दशक के आखिरी सालों में सेना के तत्कालीन डायरेक्टर जनरल जिया-उल-हक के साथ मिलकर पूर्व प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) को तबाह करने की कोशिश की.
ये वो समय था जब शरीफ़ और उनके परिवार के लोगों की आमदनी अचानक कई गुना बढ़ रही थी.
वामपंथी विचारधारा को मानने वाली पीपीपी सरकार ने 1980 के दशक में भारत से बातचीत के रास्ते खोले और संबंध सुधारने की कोशिश की.
इसके अलावा उस वक़्त पाकिस्तान ने भारत के पंजाब प्रांत में अलगाववादी ताक़तों को दबाने में भी भारत की मदद की. ज़िया-उल-हक के समय शुरू हुई इस बगावत में पाकिस्तान का हाथ माना जा रहा था.
1999 में नवाज़ शरीफ़ ने बेनज़ीर भुट्टो के कदमों पर चलते हुए तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री को लाहौर आने का न्यौता दिया जहां उनके बीच संबंध सुधारने के लिए समझौतों पर हस्ताक्षर हुए.
लेकिन कुछ ही महीनों बाद पाकिस्तानी सेना ने भारत के ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी और इसके कुछ ही समय बाद शरीफ़ को पद छोड़ना पड़ा.
2013 के चुनावों में शरीफ़ का मुख्य नारा भारत से संबंध सुधारना था. लेकिन सत्ता में आने के छह महीने बाद ही उनकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा बनकर उभरे पूर्व क्रिकेटर इमरान ख़ान.
हालांकि 2014 में इमरान ख़ान के साथ नवाज़ सरकार के ख़िलाफ़ उतरे लोगों ने उन पर ख़ुफ़िया एजेंसियों के निर्देश पर काम करने का आरोप लगाया.
इसके पहले, इमरान खान पर एक सोशल वर्कर दिवंगत अब्दुल सत्तार ईधी ने आरोप लगाया था कि उन्होंने आईएसआई के साथ मिलकर 1990 के दशक में बेनज़ीर भुट्टो सरकार के तख़्ता पलट की साजिश रची थी.
ईधी ने बताया था कि उन्हें कैंपेन में शामिल होने का न्यौता दिया गया लेकिन जब उन्होंने इनकार कर दिया तो जान से मारने की धमकी दी गई. आख़िरकार उन्होंने कुछ वक़्त के लिए देश छोड़ दिया था.
2013 से नवाज़ शरीफ ने भारत से संबंध सुधारने की कोशिश में काफ़ी प्रयास किए लेकिन उनका दुख बढ़ता रहा.
और पनामा पेपर्स मामले में इमरान ख़ान की याचिका आख़िरकार असर कर गई और शरीफ़ को कुर्सी छोड़नी पड़ी.