जनजीवन ब्यूरो / नई दिल्ली । शब्द अच्छा है लेकिन संस्कार है किसके अंदर? हफ़्ते भर पहले एक बेटी का पिता पार्टी बदलता है तो पुत्री पर वार हो रहा था, आज वही एक बहू अपने चचेरे भाई (योगी जी) के साथ एक पार्टी से दूसरी पार्टी में आती है तो स्वागत. क्या इसको भी वर्ग से जोड़ा जाना चाहिए कि बेटी (मौर्य) पिछड़े वर्ग की है और बहू (बिष्ट) अगड़े वर्ग से हैं. बहन-बेटी की भी जाति और धर्म होता है?
अगड़ा भाजपा में आता है तो राष्ट्रवादी और वो वोट भाजपा को करेगा या नहीं इसपे सवाल खड़ा करना तो दूर सोचा भी नहीं जाता, लेकिन पार्टी में रहने वाला राष्ट्रद्रोही, उसके वोट पे सवाल खड़े हो रहे ऐसा क्यों?
कृपया सलाह न दें मैं कहाँ जाऊँ क्या करूँ, मैं जहाँ हूं ठीक हूं.”
19 जनवरी को ये फ़ेसबुक पोस्ट बीजेपी की बदायूं से सांसद संघमित्रा मौर्य ने लिखा था.
जिस बहू का उन्होंने इस पोस्ट में नाम नहीं लिया वो हैं अपर्णा यादव, मुलायम सिंह यादव की बहू जो पहले समाजवादी पार्टी में थीं और अब बीजेपी की नेता बन गईं हैं. 19 जनवरी को वो बीजेपी में शामिल हुईं.
यूं तो बदायूं से सांसद का उनका परिचय ही काफ़ी होना चाहिए, लेकिन उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले स्वामी प्रसाद मौर्य की बेटी होने की वजह से भी वो चर्चा में हैं.
पिछले दिनों स्वामी प्रसाद मौर्य ने बीजेपी का दामन छोड़, समाजवादी पार्टी का दामन थामा, इस वजह से भी चर्चा में रही हैं.
हालांकि उन्होंने ये साफ़ कर दिया है कि वो बीजेपी छोड़ने का फ़िलहाल उनका कोई इरादा नहीं है.
लेकिन पिछले दिनों अपर्णा यादव के लिए उन्होंने जैसा फे़सबुक पोस्ट लिखा, उससे लगा जैसे वो अपनी पार्टी और पार्टी में शामिल नई नेता से कुछ नाराज़ चल रही हैं.
अपर्णा यादव से रिश्ते
संघमित्रा मौर्य ने बीबीसी से इन तमाम मुद्दों पर बात की और अपना पक्ष रखा. उन्होंने साफ़ कहा कि अपर्णा यादव से उनकी कोई नाराज़गी नहीं है.
“उनका खुले मन से स्वागत करती हूँ. अपर्णा यादव मेरी बहन हैं मेरी भाभी हैं, जो रिश्ता आपको उचित लगे मान लीजिए. उनको जाति से जोड़ कर नहीं देखती. मातृशक्ति को मज़बूत करने के लिए उन्होंने घर से बाहर क़दम निकाला है. उनका स्वागत है.”
अपने पोस्ट के उद्देश्य को साझा करते हुए उन्होंने कहा, “मैंने फे़सबुक पर जो कुछ लिखा वो केवल उन फे़सबुकिया लोगों के लिए था जो घर पर बैठ कर, बिना सलाह माँगे किसी को भी सलाह दे देते हैं और बिना सोचे समझे किसी पर टिप्पणी कर देते हैं. मैंने तो उस पोस्ट में सवाल ही पूछा है कि बेटी और बहन की भी जाति और धर्म होती है क्या? सवालिया निशान लगाने का मक़सद यही था. हम सनातन धर्म मानने वाले लोग हैं, जिसमें हमेशा कहा जाता है कि बहन बेटियों की जाति धर्म नहीं होता. तो फिर एक बेटी पर टिप्पणी क्यों? और बहू पर मौन क्यों?”
पिता के फ़ैसले पर बयान
क्या पिता स्वामी प्रसाद मौर्य ने बीजेपी छोड़ने का फ़ैसला लेते समय बेटी को इस बारे में पहले से बताया था, या बेटी ने उन्हें मनाने की कोशिश की?
इस बारे में संघमित्रा कहती हैं, “ये राजनीतिक फ़ैसले हर किसी के अपने अपने होते हैं. पिताजी ने फ़ैसला लेने से पहले हम लोगों से कोई चर्चा नहीं की थी. उन्होंने अपना मन बनाया और अपना फ़ैसला लिया. बाद में भी इस बारे में कोई चर्चा नहीं हुई. उन्होंने बस इतना कहा आप लोग स्वतंत्र है और अपना फ़ैसला ले सकते हैं.”
अब स्वामी प्रसाद मौर्य और उनके बेटे समाजवादी पार्टी में हैं और बेटी संघमित्रा मौर्य बीजेपी में.
ये पूछे जाने पर कि क्या ये सोचा-समझा फ़ैसला है कि दोनों अलग-अलग पार्टियों में रहें ताकि दोनों में से कोई न कोई सत्ता पक्ष में रहे?
वो कहतीं हैं, “हमारा परिवार पहला ऐसा परिवार तो है नहीं. ऐसे कई परिवार हैं, जहाँ दो नहीं बल्कि चार-चार पार्टियों में रहने वाले लोग हैं, कोई विधायक कोई सांसद कोई पार्टी का पदाधिकारी और कोई कार्यकर्ता के रूप में काम करता रहा है. शुरुआत में आपने जिनका ज़िक्र किया, उनका परिवार भी इसका उदाहरण हैं.
एक बार फिर बातचीत में उन्होंने अपर्णा यादव की तरफ़ इशारा किया लेकिन उन्होंने नाम नहीं लिया.
अपर्णा यादव का नाम लेने से परहेज़ क्यों? इस सवाल का सीधे जवाब नहीं दिया लेकिन इतना कहा कि इतिहास गवाह है, इसलिए मैंने केवल आपको नाम गिनाया.
अपने पिता के बारे में वो कहती हैं, “राजनीति के गुर हमने पिताजी से सीखा है, इस नाते वो हमारे पिता के साथ-साथ राजनीतिक गुरु हैं. राजनीतिक गुरु होने के नाते हमारी और हमारे पिताजी की विचारधारा एक है. लेकिन प्रदेश और देश की राजनीतिक परिस्थिति अलग-अलग होती है. उन्होंने प्रदेश की राजनीतिक स्थिति को देखते हुए फ़ैसला लिया है. और मैंने देश की राजनीति को देखते हुए फ़ैसला लिया है.”
वो कहतीं हैं, “पुत्री के तौर पर भी अपने कर्तव्यों का निर्वहन करूंगी और कर्मठ कार्यकर्ता के तौर पर पार्टी का काम भी करूंगी.”
पिता के लिए चुनाव प्रचार करेंगी?
इस सवाल पर वो कहती हैं, “बेटी होने के नाते बैकडोर से मैं पिता के लिए प्रचार करूंगी. लेकिन पार्टियां अलग होने के नाते हम अपनी पार्टी के प्रचार में जाएंगे और रहेंगे.”
पिछड़ों की राजनीति
स्वामी प्रसाद मौर्य के साथ बाक़ी नेताओं और बीजेपी से निकलना और समाजवादी पार्टी में जाना- इस पूरी कहानी ने उत्तर प्रदेश के चुनाव में अगड़ी और पिछड़ी जाति की बहस छेड़ दी है.
जिस हिसाब से बीजेपी का साथ छोड़ते हुए नेताओं ने समाजिक न्याय नहीं मिलने की बात की, उसने इस बहस को और तेज़ कर दिया.
लेकिन बीजेपी में रहते हुए संघमित्रा मौर्य अपने पिता के इतर राय रखती हैं.
“मुझे लगता है आने वाले दिनों में सबको अपना हक़ और अधिकार मिलेगा, इसलिए भारत के प्रधानमंत्री के नेतृत्व में देश की राजनीति में उनके क़दम से क़दम मिला कर चलना चाहती हूँ.
बीजेपी पिछड़ों को साथ लेकर चलती है, इसका उदाहरण मैं स्वयं हूँ. मैं सांसद हूँ, कार्यकर्ता के रूप में पार्टी में काम करती हूँ. इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि प्रधानमंत्री हमें बेटी की तरह सम्मान देते हैं.”
ये पूछे जाने पर कि एक दूसरा उदाहरण उनके पिता भी हैं, जिन्होंने त्यागपत्र में साफ़ लिखा था, “दलितों, पिछड़ों, किसानों, बेरोज़गार नौजवानों एवं छोटे-लघु एवं मध्यम श्रेणी के व्यापारियों की घोर उपेक्षात्मक रवैये के कारण उत्तर प्रदेश के योगी मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा देता हूँ.”
संघमित्रा ने अपनी बात दोबारा दोहराई कि प्रदेश और देश की राजनीति अलग अलग होती है.
बीजेपी पिछड़ों को लेकर दोहरा रवैया अपनाती है, इसके इल्ज़ाम लगाने वाले ये भी कहते हैं कि ओबीसी बीजेपी में मंत्री तो बन जाते हैं, लेकिन जातिगत जनगणना पर भी बीजेपी एक तरह से चुप्पी साध लेती है.
ओबीसी बिल पर बोलते हुए ख़ुद संघमित्रा मौर्य ने पार्टी लाइन से इतर जातिगत जनगणना की वकालत तक की थी.
आख़िर ऐसा क्यों? इस पर संघमित्रा काफ़ी आशान्वित होकर कहती हैं, प्रधानमंत्री के नेतृत्व में ये माँग भी पूरी होगी.
राजनीतिक सफ़र
संघमित्रा मौर्य ने वैसे तो डॉक्टरी की पढ़ाई की है. इसे पेशे के तौर पर उन्होंने अपनाया भी, लेकिन बाद में 2010 में राजनीति में आ गईं.
डॉक्टरी पेशे से राजनीति में आने के अपने सफ़र पर उन्होंने कहा, “राजनीति में मेरी रुचि पहले से थी. लेकिन एटा में डॉक्टर रहते हुए ख़ुद लोगों ने मुझे राजनीति में आने को कहा और जनता के अनुरोध पर ही मैं राजनीति में आई.”
2019 लोकसभा चुनाव में संघमित्रा ने समाजवादी पार्टी के मज़बूत गढ़ बदायूं से चुनाव लड़ा और सपा के बड़े नेता धर्मेंद यादव को हराया. हालांकि 2014 में मैनपुरी से मुलायम सिंह यादव के ख़िलाफ़ वो चुनाव हार गईं थीं.
2016 में पिता के साथ वो बीजेपी में शामिल हुईं थी.