जनजीवन ब्यूरो
लखनऊ. यूपी में सपा-कांग्रेस और रालोद का महागठबंधन बनने से पहले ही नाकाम हो गया। उम्मीद के मुताबिक सीटें नहीं मिलने पर रालोद ने अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है। वहीं सपा और कांग्रेस में सीटों को लेकर बातचीत चल रही है। कांग्रेस ने रायबरेली और अमेठी की 12 में से 9 सीटें मांगी हैं। लेकिन सपा इन्हें देने को तैयार नहीं है। सपा ने भी साफ कर दिया है कि वह 300 से कम सीटों पर नहीं लड़ेगी। बाकी सीटें कांग्रेस समेत दूसरी पार्टियों को देगी।
सूत्रों के मुताबिक, कांग्रेस 100 सीटों पर अड़ी हुई है। साथ ही 35 ऐसी सीटें मांग रही है जहां सपा के सिटिंग विधायक हैं या पिछले चुनाव में उसके कैंडिडेट दूसरे नंबर पर रहे थे। अखिलेश गुट का कहना है कि गठबंधन होने पर कांग्रेस 56 सीटों पर ही जीत दर्ज कर सकती है। ऐसे में 85 से ज्यादा सीटें नहीं दी जा सकती।
कांग्रेस रायबरेली और अमेठी जिले की 12 सीटों में से 9 सीटें चाहती है। उसका मानना है कि यह सोनिया-राहुल का गढ़ है। लेकिन सपा का कहना है कि इन 12 में 9 सीटों पर उसके विधायक हैं।
इसके अलावा वेस्टर्न यूपी और खीरी की 25 सीटों पर भी कुछ यही कहानी है। इन 25 सीटों पर या तो सपा के विधायक हैं या पिछले चुनाव में पार्टी दूसरे नंबर पर रही थी।
कांग्रेेस का कहना है कि 15 सीटों पर उसके कैंडिडेट सपा के सिंबल पर लड़ें।लेकिन सपा को डर है कि इससे उसके नेता बगावत कर सकते हैं। कांग्रेस ने लखनऊ कैंट की सीट भी मांगी है। इस पर मुलायम अपनी बहू अपर्णा को खड़ा करना चाहते हैं। यह सीट कांग्रेस ने जीती थी।
सपा को नुकसान कैसे?
1989 के बाद लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा, कांग्रेस लगातार अपना जनाधार खोती चली आई है।1989 में कांग्रेस के पास 94 सीट थीं। 1991 में 46 रह गईं। 1993 में तो 28 तो 1996 में 33 सीटें मिलीं। 2002 में 25, 2007 में 22 सीट व 2012 में 28 सीट मिलीं। कांग्रेस के गढ़ अमेठी, रायबरेली और सुल्तानपुर में भी सपा ने 2012 में सेंध लगाई थी।
सपा को 15 में 12 सीटें मिलीं थी। ऐसे में कांग्रेस उन 300+ सीटों पर सपा कैंडिडेट को नुकसान पहुंचाएंगे। दोनों दल एक-दूसरे को वोट ट्रॉन्सफर करवाएंगे, लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है। 19% मुस्लिम वोटर्स हैं। अयोध्या कांड के बाद से सिर्फ सपा ही मुस्लिम वोटर्स का ठिकाना रही है। 2012 में सपा को 39% और कांग्रेस को 18% मुस्लिम मत मिले थे। कहा जाता है मुस्लिम भाजपा को हराने वाली पार्टी को वोट करता है। इसका फायदा इस गठबंधन को मिल सकता है। कांग्रेस को कम ही सही, लेकिन सवर्णों का भी वोट मिलता रहा है। पार्टी ने इसीलिए ब्राह्मण चेहरा शीला दीक्षित को सीएम कैंडीडेट बनाया है। इसका फायदा सपा को भी मिल सकता है।
– यही वजह रही कि सपा में हुई कलह की वजह से कांग्रेस को साथ लेकर चलने का फॉर्मूला अखिलेश ने निकाला।
यूपी में पार्टी के बड़े नेताओं का ही जनाधार कांग्रेस का है। इसमें प्रमोद तिवारी, श्रीप्रकाश जायसवाल, जितिन प्रसाद, सलमान खुर्शीद जैसे लगभग 2 दर्जन बड़े नेता हैं। अगर कांग्रेस शीला दीक्षित को सीएम फेस प्रोजेक्ट नहीं करेगी तो 10% ब्राह्मण वोट छिटक सकते हैं। कई नेता जो करीबी अंतर से हारे थे, लेकिन अब गठबंधन की वजह से उन्हें टिकट नहीं मिलेगा। वे दल बदल सकते हैं।
एक्सपर्ट्स का मानना है कि कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है। उसकी सीटें कम होती जा रही हैं। अगर अब वह कम सीटों पर उतरेगी तो अगले चुनाव में वह टिक भी नहीं पाएगी।
2012 चुनाव में कांग्रेस ने 28 सीटें जीती थीं। गठबंधन से कांग्रेस की अधिकतम 10 सीट बढ़ सकती है। क्योंकि 2012 में कांग्रेस 32 सीटों पर दूसरे नंबर पर थी। जबकि इसमें से 3 सीट ऐसी थीं, जहां 500 वोट का था।
18 सीटों में यह अंतर 5 से 15 हजार था। ये मार्जिन बताता है कि कांग्रेस के परंपरागत वोटर सुस्त हैं। अगर कांग्रेस अच्छे कैंडिडेट उतारेगी तभी उसे फायदा मिल सकता है।
2012 में 250 सीटों पर कांग्रेस की जमानत जब्त हो गई थी। ये भी हो सकता है कि कांग्रेस 2017 में सपा से कम सीटें ले पर 2019 लोकसभा में ज्यादा सीटें मांग सकती है।