नई दिल्ली: एड्स (एक्वायर्ड इम्यून डेफिसिएंसी सिंड्रोम) से बचाव संभव है, लेकिन रोग हो जाने के बाद मौत तय है। इस बीमारी में मौत तो बाद में आती है, सामाजिक भेदभाव पहले तोड़ता है। मरीज का पूरा परिवार इसका शिकार होता है। समस्या का गंभीर पहलू यह है कि अस्पतालों तक में भेदभाव के उदाहरण हैं। सरकार ने एड्स पीडि़तों के लिए कानून तो बना दिए हैं, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि उनके हितों की रक्षा करे तो कौन और कैसे?
उत्तराखंड में एड्स की रोकथाम पर हर बरस करोड़ों खर्च करने के बाद भी एचआइवी/एड्स के साथ जी रहे लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। इनमें गर्भवती महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं। आलम यह है कि देहरादून जैसे सुविधा संपन्न शहर में भी इस वर्ष जिन मरीजों का पता चला उनमें करीब आधी महिलाएं हैं।
उत्तराखंड राज्य एड्स नियंत्रण समिति के आंकड़ों पर गौर करें तो चौंकाने वाली तस्वीर सामने आती है। देहरादून, नैनीताल, ऊधमसिंह नगर के साथ ही हरिद्वार जैसे जिलों में ऐसे मरीजों की संख्या ज्यादा है, लेकिन पहाड़ी जिले भी पीछे नहीं हैं। पौड़ी और पिथौरागढ़ जैसे जिलों में यह संख्या खासी नजर आती है।
यह सही है कि प्रभावितों को रोगमुक्त नहीं किया जा सकता, लेकिन समय-समय पर एंटी रेट्रो वायरल दवाएं देकर और काउंसलिंग कर उनकी आयु बढ़ाई जा सकती है। राज्य निर्माण के 17 साल बाद भी एचआइवी/एड्स के साथ जी रहे लोगों को सरकार एआरटी केंद्र तक हर माह आने-जाने की निश्शुल्क सुविधा नहीं दे सकी है, लिंक एआरटी केंद्र जरूर खोल दिए गए हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में घर से दूरी अधिक होने की वजह से भी कई लोग जांच कराने के लिए तय सेंटर पर नहीं पहुंच पाते। इसके कारण भी यह मर्ज बढ़ रहा है। अधिकारियों का कहना है कि एड्स नियंत्रण के लिए लगातार जनजागरुकता कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इसमें कई एनजीओ का भी सहारा लिया जा रहा है।
साल दर साल एक नजर
वर्ष———-पुरुष—महिलाएं—-गर्भवती
2010-11—-457—-254——– 50
2011-12—-507—-270———59
2012-13—-564—-269———54
2013-14—-545—-268———48
2014-15—-530—-276———51
2015-16—-508—-245———49
2016-17—-535—-231———50
2017-18—-367—-170———43
जिलावार एड्स रोगियों की संख्या
देहरादून————-2755
नैनीताल————-1127
हरिद्वार—————713
ऊधमसिंहनगर——–574
पौड़ी गढ़वाल———-327
पिथौरागढ़————-211
अल्मोड़ा—————162
बागेश्वर—————120
रुद्रप्रयाग————–118
चंपावत—————–97
चमोली——————87
टिहरी गढ़वाल———-79
उत्तरकाशी————–45
उत्तराखंड में संक्रमण दर है 0.12 फीसद
बिहार के पूर्वी चंपारण जिला अंतर्गत केसरिया की रहने वाली रागिनी (काल्पनिक नाम) एचआइवी (ह्यूमन इम्यूकन डेफिसिएंसी वायरस) पॉजेटिव हैं। फिलहाल एड्स नहीं, लेकिन तबियत खराब रहती है। रागिनी को यह ‘सौगात’ लुधियाना में मजदूरी कर लौटे पति से मिली। संक्रमण की जानकारी होने के बाद परिवार व समाज ने दंपती से किनारा कर लिया है। निराश रागिनी कहती है, ”भगवान ऐसी मौत किसी को न दे, जिसमें कंधा
देने वाले रहेंगे या नहीं, इसे लेकर भी संशय हो।”
पटना के असलम (काल्पनिक नाम) को एक निजी अस्पताल में सर्जरी के दौरान ब्लड की जरूरत हुई। परिजनों ने किसी दलाल के माध्यम से इसका जुगाड़ किया। करीब 10 साल पहले की इस ‘गलती’ का खामियाजा आज असलम भुगत रहे हैं। शुरूआती दौर में एचआइवी संक्रमण का पता नहीं चला। अब एड्स की अंतिम अवस्था में मौत के दिन गिन रहे असलम को अपनी नहीं, उनके कारण समाज में अछूत बन गए परिवार की चिंता है। कहते हैं, बिना किसी गलती के बीमारी हो गई, लेकिन समाज नहीं मानता।
दरअसल, रागिनी और असलम बिहार में एचआइवी संक्रमित व एड्स पीडि़त लोगों व उनके परिवारों की व्यथा के दो उदाहरण मात्र हैं। विभिन्न कारणों से एचआइवी संक्रमण व उसके बाद एड्स, फिर मौत तक के सफर के बीच जो बीतती है, उसे बयां नहीं किया जा सकता। बीमारी की मौत तो बाद में आती है, इसके पहले मरीज व परिजन हर दिन घुट-घुटकर मरते हैं।
सामाजिक भेदभाव से टूट जाते मरीज
एड्स पर लंबे समय से काम कर रहे पटना के चिकित्सक डॉ. दिवाकर तेजस्वी मानते हैं कि ऐसे मरीजों के साथ सामाजिक भेदभाव होता है। ऐसा इसे छूत की बीमारी होने की गलत धारणा के कारण है। डॉ. तेजस्वी कहते हैं कि यह छूत की बीमारी नहीं है, इसे बताने के लिए उन्होंने सार्वजनिक तौर पर एड्स मरीज के जूठे बिस्किट को भी खाकर दिखाया था। ऐसा नहीं कि एचआइवी व एड्स को लेकर समाजिक जागरूकता नहीं फैली है, लेकिन अभी और जागरूकता जरूरी है।
चिकित्सकों में भी जागरूकता की कमी
समाज की तो छोड़ें, चिकित्सक भी ऐसे मरीजों से भेदभाव करते हैं। हाल ही में पटना के एक बड़े सरकारी अस्पताल में एक एचआइवी संक्रमित महिला को बेड से बाहर फेंक देने की खबर हेडलाइन बनी थी। जब मरीज को भर्ती करने के बाद उसे अस्पताल ही निकाल बाहर कर दे तो इलाज कैसे होगा? गोपालगंज के डॉ. संदीप कुमार स्वीकार करते हैं कि एड्स को लेकर चिकित्सा जगत में भी जागरूकता की जरूरत है।
संबल व इलाज मिले तो मरीज जी सकता पूरा जीवन
डॉ. तेजस्वी बताते हैं कि अगर एचआइवी संक्रमण का समय रहते पता चल जाए, सामाजिक सहयोग मिले तथा उचित इलाज हो तो 20 साल का युवा और 50 साल आराम से जी सकता है। अर्थात् एचआइवी संक्रमण में जीवन प्रत्याशा सामान्य रह सकती है। इस दौरान उसकी कार्यक्षमता भी सामान्य् रह सकती है। यहां तक कि अगर सही इलाज हो तो संक्रमित मां भी स्वस्थ बच्चे को जन्म दे सकती है। वे बताते हैं कि सरकारी स्तर पर इलाज व काउंसेलिंग की व्यवस्था तो है ही, प्राइवेट इलाज भी सस्ता हो गया है। अब एक हजार से 12 सौ रुपये महीना के खर्च पर इलाज संभव है।
60 हजार संक्रमितों का पता नहीं
बिहार की बात करें तो नाको (नेशनल एड्स कंट्रोल सोसायटी) के अनुमान के अनुसार यहां 1.60 लाख एचआइवी संक्रमित हैं। इनमें 90 हजार चिह्नित किए जा चुके हैं, जिनमें करीब 80 हजार का इलाज एआरटी (एंटी रेट्रोवायरल ट्रीटमेंट) सेंटरों में चल रहा है। जबकि, 60 हजार चिह्नित संक्रमितों को पता ही नहीं कि वे कितनी गंभीर स्थिति से गुजर रहे हैं। ऐसे अचिह्नित संक्रमितों की पहचान जरूरी है।
सालाना सात हजार हो रहे संक्रमित
बिहार में एचआइवी से सालाना करीब सात हजार लोग संक्रमित हो रहे हैं। राजधानी से लेकर गांवों तक लोग इसके शिकार हो रहे हैं। सर्वाधिक युवा इस बीमारी के चपेट में आ रहे हैं।
यह है इलाज का सच
मरीजों की पहचान कर उनका इलाज प्राथमिकता है। इसके लिए पूरे राज्य में एआरटी सेंटर चल रहे हैं। वहां मरीजों के लिए दवाएं मुफ्त उपलब्ध हैं। उन्हें खास तौर से तीन दवाएं नियमित लेनी पड़ती हैं- टेनेफाबिर, लोमेगुडीन और डफीबीरिंच।
खास बात यह है कि ये दवाएं कुपोषण की स्थिति में बहुत कम असर करती हैं। एआरटी सेंटर में मरीजों के पोषण के लिए को आयरन की गोली या मल्टी विटामिन आदि मुफ्त नहीं मिल रहे।
मरीजों को हर छह माह में एक बार हीमोग्लोबीन, एसजीपीटी, बिलुरूबीन व क्रिटनीन की जांच करानी पड़ती है। ये जांच हर जगह उपलब्ध नहीं। एचआइवी मरीजों के लिए कार्यरत संस्था ‘पीएनपी’ की प्रोजेक्ट कॉर्डिनेटर रीता कुमारी कहती हैं कि पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में जांच की व्यवस्था डोएन जांच सेंटर में है। वहां अधीक्षक से हस्ताक्षर कराने के बाद ही मुफ्त जांच होती है। मरीज इसके लिए भटकते रहते हैं।
पीडि़तों को नहीं मिल रहा योजना का लाभ
बिहार सरकार एड्स पीडि़तों के कल्याण के लिए 2015 से ‘बिहार शताब्दी एड्स पीडि़त कल्याण योजना’ चला रही है। इसके तहत मरीजों के सही पोषण आदि के लिए हर माह 1500 रुपए देने हैं। लेकिन, योजना अभी तक पूरी तरह जमीन पर नहीं उतर सकी है। इस योजना के तहत 18 साल से ऊपर के मरीजों को लाभ देना है। योजना के तहत 2015 में एक महीने की राशि कुछ मरीजों को मिली, लेकिन उसके बाद से राशि नहीं दी जा रही है।
समाज कल्याण विभाग की ओर से राशि बिहार राज्य एड्स कंट्रोल सोसाइटी को दी जाती है। फिर, सोसाइटी को राशि को पीड़ितों के खाते में भेजनी है। हालत यह है कि इस मद में एड्स कंट्रोल सोसाइटी के फंड में 12.43 करोड़ रुपये पड़े हैं, लेकिन मरीजों को नहीं मिल रहे।
इसके कारणों की पड़ताल में यह बात समाने आई कि सोसाइटी अभी तक मरीजों के बैंक खातों तक की जानकारी नहीं जुटा पाई है। जबकि, एआरटी सेंटर से दवा ले रहे मरीजों की जानकारी जुटाना बड़ी बात नहीं है।
बिहार राज्य एड्स कंट्रोल सोसायटी के प्रोजेक्ट निदेशक संजय कंमार सिंह स्वीकार करते हैं कि अभी फंड में करीब 12 करोड़ रुपए पड़े हैं। जिन्हें लाभ पहुंचाना है वैसे पीड़ितों की संख्या को देखते हुए यह राशि कुछ महीने ही दी जा सकेगी। उन्होंने बताया कि सोसायटी सभी एआरटी सेंटर से मरीजों के बैंक एकाउंट नंबर ले रही है।
इस बाबत समाज कल्यांण विभाग की मंत्री मंजू वर्मा कहती हैं कि सरकार एड्स कंट्रोल सोसायटी को राशि उपलब्ध करा रही है। इसमें कटौती नहीं की गई है। जल्दी ही यह राशि मरीजों को उपलब्ध होगी।
संक्रमण के कारण व बचाव के उपाय
लेकिन, बात संक्रमण व इलाज तक जाए ही क्यों, जब इससे बचाव संभव है? मोतिहारी के डॉ. भास्कर रॉय बताते हैं कि एचआइवी संक्रमित पार्टनर से असुरक्षित यौन संबंध संक्रमण का एक बड़ा कारण है, लेकिन यह एकमात्र कारण नहीं। यह संक्रमण संक्रमित सूई या अन्य उपकरणों के उपयोग, संक्रमित ब्लड या ब्लड प्रोडक्ट के
ट्रांसफ्यूजन से भी हो सकता है। ब्लड के अलावा शरीर के अन्या द्रव के संपर्क में आने पर भी संक्रमण संभव है। संक्रमित मां से पैदा होने वाले बच्चे में भी संक्रमण जा सकता है, हालांकि इससे एक हद तक बचाव संभव है।
एचआइवी संक्रमण शेविंग के दौरान संक्रमित ब्लेड के उपयोग से भी हो सकता है। आधुनिक जीवन शैली में टैटू बनवाना फैशन में शुमार है। इससे भी संक्रमण हो सकता है।
बात बचाव की आती है तो यह संक्रमण के कारणों को लेकर सतर्कता पर जा टिकती है। सुरक्षित व एक पार्टनर से यौन संबंध तथा कंडोम का इस्तेमाल कर संक्रमण से बचा जा सकता है। अस्पतालों में संक्रमण को लेकर सतर्कता बरती जानी चाहिए। पूरी तरह जांच के उपरांत ही किसी मरीज को ब्लड या ब्लड प्रोडक्ट दिए जाएं। शविंग करने व टैटू बनवाने आदि के वक्त ध्यान रखें कि ब्लेड व सूई पुराने न हों।
इनसे नहीं होता संक्रमण
एचआइवी व एड्स को लेकर समाज में भ्रांतियों की भरमार है। पहली भ्रांति तो इसके छूत की बीमारी होने को लेकर है। मुजफ्फरपुर के बैरिया निवासी अजय (काल्पनिक नाम) की 10 साल की बेटी ब्लड ट्रांसफ्यूजन के कारण एचआइवी संक्रमण की शिकार हो गई। उसे स्कूल से निकाल दिया गया। पड़ोसी उसे अपने बच्चों के साथ खेलने नहीं देते। अजय बताते हैं कि उनकी बेटी को न तो छूत की बीमारी है, न इसके लिए वह दोषी है, लेकिन एकाकी होकर रह गई है। इसके पीछे सामाजिक भ्रांतियां हीं जिम्मेददार हैं।
डॉ. भास्कर रॉय बताते हैं कि यह संक्रमण हाथ मिलाने, साथ रहने, छींकने या खांसने आदि से नहीं फैलता। मच्छर काटने से भी यह संक्रमण नहीं होता। कुल मिलाकर यह संक्रामक बीमारी नहीं है।
नष्ट हो जाती रोग प्रतिरोधी क्षमता
एचआइवी संक्रमण के एड्स तक विकसित होने में कई साल लगते हैं। जैसे-जैसे शरीर की रोग प्रतिरोध प्रणाली क्षतिग्रस्त होती जाती है, विभिन्न बीमारियों से लड़ने की क्षमता कम होती जाती है। ऐसे में शरीर में विभिन्न बीमारियों के संक्रमण होने लगते हैं। डॉ. दिवाकर तेजस्वी कहते हैं कि एड्स अपने आप में कोई बीमारी
नहीं, बल्कि एक अवस्था है जिसमें शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता नष्ट हो जाती है और पीडि़त विभिन्न बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। खासकर टीबी का संक्रमण देखने को मिलता है।
बिहार में आधे एचआइवी पॉजिटिव लोग टीबी से पीडि़त
दुनिया भर में एड्स की वजह से होने वाली मौतों में टीबी का बड़ा हाथ है। जिन लोगों में एचआइवी संक्रमण हो, उनमें टीबी की आशंका 30 गुना अधिक होती है। बिहार के संदर्भ में डॉ. तेजस्वी कहते हैं कि करीब आधे एचआइवी संक्रमित लोग टीबी के संक्रमण से जूझ रहे हैं।
एड्स के सामान्य लक्षण
एचआइवी संक्रमण के शुरूआती लक्षणों की अगर समय रहते पहचान कर उपचार शुरू कर दिया जाए तो पीडि़त को लंबी आयु मिल सकती है। इसके लक्षणों की चर्चा करते हुए डॉ. संदीप कुमार कहते हैं कि लगातार तेज बुखार, हमेशा थकान व नींद आना, भूख में कमी, रात में सोते समय पसीना आना, दस्त लगना व वजन में कमी एचआइवी संक्रमण के लक्ष्ण हो सकते हैं। इस संक्रमण की स्थिति में त्वचा पर रेशे पड़ सकते हैं तथा
ग्रंथियों में सूजन आ सकती है। किसी व्यक्ति को अगर खुद के एचआइवी संक्रमित होने का शक हो तथा ऐसे लक्षण भी दिखें तो उसे एचआइवी संक्रमण की जांच जरूर करा लेनी चाहिए।