जनजीवन ब्यूरो
नई दिल्ली: लगभग आठ साल पहले 1993 के मुंबई ब्लास्ट के दोषी याकूब मेमन को पकड़ने वाले पूर्व रॉ अफसर ने याकूब को फांसी न देने की वकालत थी। यह वकालत उन्होंने अपने एक लेख में की थी। रॉ अधिकारी याकूब की गिरफ्तारी के ऑपरेशन को कॉर्डिनेट कर रहे थे।
न्यूज पोर्टल को 2007 में रॉ अधिकारी वी रमन ने लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने याकूब को फांसी की सजा नहीं देने की बात कही थी।
फांसी विवाद के बाद उनके भाई की इजाजत से रेडिफ ने उनका लेख छापा है। वी रमन रॉ के काउंटर टेररिज्म डेस्क के मुखिया थे। याकूब और उसके परिवार के सदस्यों को कराची से भारत लाने के पूरे ऑपरेशन को उन्हीं की देखरेख में चलाया गया।
इस कॉलम में रमन ने कहा था कि उनकी राय में याकूब मेमन को फांसी की सजा से छूट मिलनी चाहिए। रमन के अनुसार जुलाई 1994 में (उनके रिटायरमेंट से कुछ माह पहले) नेपाल पुलिस के सहयोग से याकूब को औपचारिक तौर पर काठमांडो से गिरफ्तार किया गया था। नेपाल से लाकर उसे भारतीय सीमा के क्षेत्र में रखा गया। इसके बाद उसे उड्डयन शोध केंद्र (एआरसी) के विमान से दिल्ली लाया गया। खानापूरी के लिए जांच अधिकारियों ने उसकी गिरफ्तारी पुरानी दिल्ली में दिखाई। फिर उसे पूछताछ के लिए हिरासत में लिया गया. इस पूरे अभियान का तालमेल उनके हाथों में था।
कॉलम में लिखा गया, ‘जांच एजंसियों के साथ याकूब का सहयोग, अपने परिवारियों को पाकिस्तान से लाने का प्रयास और आत्मसमर्पण का मामला उसकी फांसी की सजा पर सवाल उठाने लायक है। मेरी राय में विभिन्न हालात के आधार पर यह सोचने वाली बात है कि क्या उसकी फांसी की सजा पर अमल होना चाहिए।’
पहले रमन ने जब कॉलम लिखा था, तो उनका अनुरोध था कि इसका प्रकाशन नहीं किया जाए। गुरुवार को रेडिफ डॉट कॉम ने कहा कि वह यह कॉलम रमन के बड़े भाई और रिटायर्ड आइएएस अधिकारी बीएस राघवन की इजाजत से प्रकाशित कर रहे हैं। राघवन भी रेडिफ के स्तंभकार हैं। जून 2013 में रमन की मृत्यु हो गई। वे रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के पाकिस्तानी डेस्क के मुखिया थे। याकूब और उसके परिवार के सदस्यों को कराची से भारत लाने के पूरे ऑपरेशन को उन्हीं की देखरेख में चलाया गया।
इसमें लिखा गया है कि ‘मैं बार-बार अपने आप से पूछता रहा कि क्या मुझे यह लेख लिखना चाहिए? अगर मैं ऐसा नहीं करता तो क्या मैं नैतिक रूप से कायर कहलाऊंगा? अगर मैं लिखता हूं तो क्या यह सारा केस सुलझा देगा? बेशक दोषी होने के बावजूद, मेरे लिखने से क्या वह सजा से बच जाएगा? क्या मेरे लेख के विचारों को अदालत गलत अर्थ में लेगी? क्या मैं अदालत की तौहीन कर रहा हूं? इन सवालों के फैसलाकुन जवाब पाना असंभव था। अंतत: इस भरोसे के साथ मैंने लिखने का फैसला किया कि ऐसे शख्स को फांसी के फंदे से बचाने के लिए कोशिश करनी चाहिए , जो कि इस सजा का पात्र नहीं है।’
रमन ने लिखा कि ‘मैं इस बात को जानकर परेशान था कि अभियोजन पक्ष ने याकूब मेनन और उनके परिवारियों को कराची से लाए जाने के अभियान से जुड़ी परिस्थितियों के बारे में अदालत को अवगत नहीं कराया गया। अभियोजन के वकीलों ने अदालत को यह बताने की जहमत नहीं उठाई कि सजा देते वक्त इन हालात पर गौर किया जाए।’
रमन ने लिखा कि ‘इस बात में कोई शक नहीं था कि मेमन मुंबई धमाकों की साजिश में शामिल था. जुलाई 1994 से पूर्व उसने जो कृत्य किया, उस गुनाह में सामान्य हालात में उसे फांसी की सजा मिलनी चाहिए। लेकिन काठमांडो से उसे पकड़ने और बाद के हालात के मद्देनजर उसकी सजाए-मौत पर सोचने की जरूरत है।’
उन्होंने यह भी लिखा कि ‘याकूब ने जांच एजंसियों को सहयोग दिया और अपने घर वालों को वापस लाने के लिए तैयार किया। ये परिवार आईएसआई के संरक्षण में थे। बाद में याकूब के कहने पर इन लोगों ने भारतीय अधिकारियों के समक्ष समर्पण किया था।
रमन ने कॉलम में लिखा कि ‘अभियोजन पक्ष का यह कहना सही था कि याकूब को पुरानी दिल्ली से गिरफ्तार किया गया और याकूब का यह दावा भी सही था कि उसे पुरानी दिल्ली से नहीं पकड़ा गया था।’
रमन के अनुसार, याकूब कराची से काठमांडू अपने एक नातेदार से मिलने आया था. वह एक वकील से इस सलाह के लिए आया था कि कि मेमन परिवार के सदस्यों के समर्पण के लिए क्या रास्ता हो सकता है। नातेदार और वकील ने याकूब को सलाह दी थी कि वह कराची लौट जाए, क्योंकि उसके साथ इंसाफ होना मुश्किल है. लेकिन इससे पहले कि वह कराची के लिए विमान पकड़ पाता, नेपाल पुलिस ने उसे पकड़ लिया और भारतीय अधिकारियों के हवाले कर दिया।