मीनाक्षी लेखी
सांसद एवं भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता
मुसलिम महिलाओं के समानता के अधिकारों के हनन के कारण बीते कुछ दिनों के दौरान तीन तलाक के मुद्दे और इसके संविधानिक वैधता पर काफी चर्चा और बहस हुई है। तीन तलाक एक मुसलिम पुरूष को अपनी पत्नी को तीन बार तलाक शब्द कह कर एकतरफा तलाक देने की अनुमति देता है। भारत में मुसलिम पर्सनल लाॅ के तहत तीन तलाक तलाक देने की एक मान्य विधि है। तलाक की इस विधि ने बहुत से मुसलमान पुरूषों को अपनी पत्नियों को छोड़ देने का सरल रास्ता दिया है। बहुत सी मुसलिम महिलाएं जिन्हें उनके पतियों ने तीन तलाक के जरिए तलाक दिया है बिना किसी अन्य सहारे के छोड़ दी गई हैं। ऐसी महिलाएं जो अपने पतियों पर वित्त के लिए निर्भर रहती हैं के लिए तीन तलाक आर्थिक रूप से बहुत ही छति पहुंचाने वाली होती है। मुसलिम पर्सनल लॉ के तहत तलाक कानून मुसलमान औरतों के लिए बहुत विषम है जो उसके लिए रखरखाव व निर्वाह निधि को प्राप्त करना कठिन बना देता है। तलाक होने के कारण चंूकि बहुत से कलंक भी जुड़े होते हैं इसलिए स्त्री को तलाक मिल ने के बाद सामाजिक रूप से भी त्याग दिया जाता है। तीन तलाक मिलने वाली स्त्री का जीवन सामाजिक और आर्थिक रूप से बर्बाद हो जाता है।
तीन तलाक दो तरह के होते हैं। पहले तरह पति एक ही बार में तीन बार तलाक शब्द को उच्चारित करके अपनी पत्नि को तत्काल तलाक दे सकता है। दूसरी प्रकार में, तलाक को तीन महीनों के दौरान तीन किश्तों में दिया जाता है। दोनों ही प्रकार के तलाक समान प्रकार से समस्याकारी होते हैं। पति के लिए यह तलाक देने की प्रक्रिया को बहुत आसान बना देते हैं। तलाक देने से पूर्व उसे पुनः मिलन की प्रक्रिया को भी फाॅलो करने की जरूरत नहीं होती है। पत्नि को बहरहाल तीन तलाक द्वारा पति को तत्काल तलाक देने की अनुमति नहीं है। मुसलिम मैरिज एक्ट 1939 का विघटन मुसलिम औरतों को अपने पतियों से न्यायालयों के माध्यम से तलाक चाहने के लिए हुआ था।
तीन तलाक न केवल तलाक के समय समास्याकारी होता है बल्कि औरत के विवाहित रहने के दौरान भी होता है। यहां तक कि जब औरतें विवाहित होती हैं तक तीन तलाक का उपयोग बहुत से पतियों द्वारा ब्लैकमेल के औजार के रूप में किया जाता है। औरतों के पतियों द्वारा तलाक की धमकी के कारण बहुत सी मुसलिम महिलाओं को मानसिक प्रताड़ना झेलना पड़ता है। उत्पीड़न के केवल औरत तक ही सीमित नहीं रहती है, यह उसके परिवार को भी प्रभावित करता है। इस प्रकार, तीन तलाक के कारण औरत को शादी के दौरान और उसके बाद बहुत से उत्पीड़न से गुजरना पड़ता है।
बहुत सी परिस्थितियों में पत्नि की दशा ऐसी हो जाती है कि पता नहीं चलता कि वह विवाहित है अथवा तलाकशुदा, और निश्चय ही पतियों द्वारा इसका फायदा उठाया जाता है। उदाहरण के लिए शहनाज मामले में, पति ने उसे तीन तलाक का ऑफर दिया परंतु उसके बावजूद वह उसके जीवन को उसके पति के रूप में प्रभावित करता रहा। तीन तलाक के ऐसे भी मामले हैं जिनमें इसे पत्रों, स्काईप और सोशल मीडिया के जरिए प्रस्तावित किया गया है। पत्नि की अनुपस्थिति में भी तीन बार तलाक का उच्चारण को भी मान्य माना गया है। अफरीन रहमान मामले में तलाक स्पीड पोस्ट के माध्यम से भेजा गया था। तीन तलाक की प्रैक्टिस मुसलिम औरतों के लिए किस प्रकार नीचा दिखाने वाली है यह उदारण इसका सबूत है।
50,000 हजार से अधिक भारतीय मुसलिम औरतों ने तीन तलाक को रद्द करने वाली याचिका पर हस्ताक्षर किया था। भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) इस गैरबराबरी वाली प्रथा को समाप्त करने के लिए याचिका लगाए हुए है। इस अभियान में बीएमएमए ने राष्ट्रीय महिला आयोग से समर्थन के लिए सहयोग मांगा है। उनका मानना है कि तीन तलाक को रद्द किए जाने से बहुत सी मुसलिम महिलाओं को राहत मिलेगी। मैं बीएमएमए को तीन तलाक और पतियों और उनके परिवारों की क्रूरता के खिलाफ छेड़ी गई जंग में ह्दय से अपना समर्थन देती हॅंू।
यह मूवमेंट केवल मुसलिम महिलाओं तक ही नहीं सीमित है। बहुत से मुसलमान पुरूष और दूसरे समुदाय के लोग तीन तलाक को समाप्त करने के अभियान के समर्थन में सामने आए हैं। महिला और बाल विकास का परीक्षण करने वाली बहुत सी उच्च स्तरीय समितियों भी तीन तलाक को रद्द किए जाने के लिए सामने आई हैं। द फोरम फार मुसलिम स्टण्डीज एंड एनालिसिस (एफएमएसए) ने ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) को पत्र लिख कर तीन तलाक को वैधता न देने को कहा है। मुसलिम पर्सनल लॉ के तहत विवाह और तलाक संबंधित कानूनों के बारे में गलत अवधारणा है। लोगों का विश्वास है कि यह कानून शरिया हैं जबकि वास्तव में यह सब शरिया कानून के हिस्से नहीं हैं। तीन तलाक की तरह ही हलाला और बहुविवाह भी शरिया कानून के हिस्सा नहीं है। लेकिन उन्हें गलत रूप से ऐसा माना जाता है। मुसुलिम पर्सनल लॉ को परिभाषित करने वाले मुसलिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट 1937 तथा डिसोलुशन ऑफ मुसलिम मैरिज एक्ट 1939 शरीयत कानून पर आधारित हैं। तीन तलाक का प्रयोग मुसलमान महिलाओं के जीवन को दूभर बनाने में किया जा रहा है। इसको रद्द किए जाने से मुसलमान महिलाओं को वह समानता और न्याय मिलेगा जिसकी की वे हकदार हैं। कुरान के अनुसार तलाक के पूर्व सुलह और मध्यस्थता की प्रक्रिया पूरी की जाए। सुलह के प्रयास असफल होने के बाद ही कुरान तलाक के आदेश तलाक की अनुमति देता है। बहरहाल भारत में मुसलिम पर्सनल लॉ तीन तलाक की मंजूरी देता है चाहे सुलह की प्रक्रिया पूरी हूई हो अथवा नहीं। एक पति को तीन तलाक की अनुमति एक पक्षीय रूप से एक ही बैठक में पूरा करने की अनुमति है।
भारत के सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक में कुछ प्रगतिशील निर्णय दिए हैं। 2002 में शमीम आरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मनमाने तीन तलाक को अवैध करार किया था। कोर्ट ने माना कि तीन तलाक को वैध होने के लिए जरूरी है कि वह कुरान के आदेशों के मुताबिक हो। शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो को निर्वाह भत्ता का अधिकार दिया। शाह बानो केस से पूर्व तीन इसी तरह के मामले इसी सिद्धांत पर आधारित थे। राजीव गांधी के शासन काल में हुए शाह बानो मामले की अपेक्षा दिलचस्प रूप से उस समय कोई राजनीतिक उठापटक नहीं हूई थी।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा है कि तीन तलाक मुसलमान औरतों का संविधानिक अधिकारों का हनन करता है तथा कोई भी पर्सनल लाॅ किसी भी व्यक्ति को संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों के उपर उच्चता का दावा नहीं कर सकता है। न्यायालय ने यह भी माना कि तीन तलाक क्रूर तथा नीचा दिखाने वाला है। कोर्ट का अवलोकन तीन तलाक के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान को बल प्रदान करता है।
न्यायालयों ने तीन तलाक वाले मामलों में प्रगतिशील निर्णय दिया है परंतु तीन तलाक को पूरी तरह से खत्म करने तथा असंविधानिक घोषित करने की जरूरत है क्योंकि मुसलमान औरतों के समानता के अधिकारों का हनन करता है जिसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के समानता के अधिकारों के द्वारा सभी व्यक्तियों को दिया गया है। तीन तलाक पाई गई अधिकांश औरतों को ज्ञान अथवा जागरूकता नहीं होती है या फिर न्यायालयों तक न्याय पाने के लिए उनकी पहंुच नहीं होती है। हालांकि तीन तलाक मामलों में संसाधनों के लिए न्यायालय पहुंचने वाली औरतों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है, परंतु इस समाप्त करना प्रैक्टिकल होगा। वैश्विक रूप से भी बहुत से देश पुरूषों और औरतों के बीच समानता के लिए आगे बढ़ रहे है, और हमें भी अपने देश में चल रहे तीन तलाक जैसी प्रैक्टिसों को समाप्त करना चाहिए।
वर्तमान में मुसलान पति तलाक के लिए कोर्ट के पास किसी कानून के तहत नहीं जा सकते हैं। तीन तलाक का एक ज्यादा संविधानिक और साफ विकल्प कानून के जरिए पैदा करने की करने की जरूरत है।
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले 5 सितंबर को केद्रीय सरकार को 4 सप्ताह का समय तीन तलाक में दायर एक पीआईएल के मुद्दे पर प्रत्युत्तर के लिए दिया था। सुप्रीम कोर्ट में अपने हलफनामें में आल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा कि तीन तलाक और बहु विवाह जटिल मुद्दे हैं और यह विधायी नीति के मुद्दे हैं। यह तीन तलाक को कानून के जरिए समाप्त करने का एक और कारण भी है। धार्मिक प्रैक्टिस किसी व्यक्ति के मूल अधिकारों के लिए रूकावट नहीं बन सकता। विवाह और तलाक कानून के पूर्वालोकन के दायरे में आते हैं और विशिष्ट पर्सनल लॉ जो किसी समुदाय के विवाह और तलाक से संबंधित होते हैं वो धार्मिक स्वतंत्रता के दायरे में नहीं आते हैं।
22 मुसलिम देशों ने पहले ही तीन तलाक को विदा कर दिया है। तुर्की और सायरस के पास सेकुलर परिवार कानून हैं, तुनेशिया, अलजेरिया और सारवाक उन तलाकों को मान्यता नहीं देते जो न्यायालायों के बाहर दिए गए होते हैं। यहां तक कि पाकिस्तान और बंग्लादेश ने भी तीन तलाक को समाप्त कर दिया है। इजिप्ट, जार्डन, इराक, सोमालिया, ब्रुनई, इंण्डोनेशिया, इरान और मलेशिया तीन तलाक की अनुमति नहीं देते हैं। जब इन सभी मुसलिम देशों ने तीन तलाक को छोड़ दिया है तो यह भारत के लिए उपर्युक्त समय है कि वह भी इससे दूर हो जाए।
पर्सनल लाॅ जिन्हें कोडिफाईड नहीं किया गया है उनके बहुत से मतलब निकाले जा सकते हैं। इनमें से कुछ मतलब ऐसे होते हैं जो औरतों को डिसएडवांटेज स्थिति में रखते हुए उनके समानता के अधिकारों का उल्लंधन करते हैं। एक समान सविल कोड सुनिश्चित करेगा कि पर्सनल लाॅ के नाम पर अन्याय को बढ़ावा दे सके। यह पर्सनल लाॅ की अस्पष्टताओं को भी समाप्त करेगा। यह सुनिश्चित करेगा कि कानून की नजर में सभी नागरिक विभिन्न मतावलंबियों के सदस्य होने के बावजूद बराबर हैं।
(ये विचार लेखक के हैं. इसे बिना संपादित किए हुए ही प्रकाशित किया गया है. लेखक लोक सभा की सांसद हैं और भाजपा की सदस्य हैं.)