अमलेंदु भूषण खां
नई दिल्ली । साल 2002 में गुजरात में हुए दंगों के बाद देश के राजनीतिक और सामाजिक जीवन में कई बदलाव आए. गुजरात से निकलकर भारत की राष्ट्रीय राजनीति के फलक पर नरेंद्र मोदी का आगमन हुआ. साथ ही इन दंगों ने वहां के मुसलमानों और एक हद तक देश भर के दूसरे कई मुसलमानों की ज़िंदगी पर गहरा असर डाला है.
साबरमती ट्रेन के एस-6 बॉगी में लगी भयंकर आग में अयोध्या से लौट रहे लगभग छह दर्जन कार सेवकों की मौत के बाद दंगा भड़का था. इस मामले में वरिष्ठ जजों के नेतृत्व में बैठाई गई दो जांच आयोगों की रिपोर्ट अलग-अलग है.
हालांकि हिंदुओं के बीच प्रचलित मान्यता यह है कि इस घटना के लिए मुसलमान ज़िम्मेवार थे. इसके बदले में उन्हें जो क़ीमत चुकानी पड़ी है वो भयावह है. उन्हें अपनी जानें गंवानी पड़ी, औरतों को बे-आबरू किया गया और उनकी हज़ारों करोड़ की प्रॉपर्टी का नुक़सान हुआ.
गुजरात के मुसलमान सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़, हर्ष मंदर, वरिष्ठ पुलिस अधिकारी श्रीकुमार, राहुल शर्मा और ऐसे ही अनगिनत लोगों के शुक्रगुज़ार हैं जिन्होंने उनकी ज़िंदगियों को बचाने के लिए अपना करियर दांव पर लगा दिया.
इन दंगों के पंद्रह साल बाद गुजरात के मुसलमान अब पहले से कहीं ज्यादा आत्मविश्वास से भरे हुए नज़र आते हैं.
1947 से पहले गुजरात से होने वाले विदेशी व्यापार पर अमीर मेमन मुसलमानों का दबदबा था. लेकिन उनकी अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं भी थीं.
एक मुस्लिम व्यक्ति दादा अब्दुल्लाह ने गांधी जी के पहले दक्षिण अफ्रीका दौरे का ख़र्च उठाया था. नेताजी सुभाष चंद्र बोस के इंडियन नेशनल आर्मी को अब्दुल हबीब मरफ़ानी ने 1943 में आर्थिक मदद दी थी.
देश के बंटवारे के बाद अमीर मुसलमान पाकिस्तान चले गए. इसने गुजरात के मुसलमानों को आर्थिक और मनोवैज्ञानिक तौर पर तोड़ कर रख दिया.
2002 में यहां के मुसलमान दूसरे समुदायों के लोगों से शिक्षा, स्वास्थ्य और राज्य से मिलने वाली मदद में काफी पीछे थे. 1947 के बाद दशकों से बमुश्किल किसी मुसलमान को राज्य के मंत्रिमंडल में या फिर किसी बड़े अधिकारी के ओहदे पर नहीं देखा गया.
यह उनके मानवाधिकार का हनन है. यह गुजरात के समाज के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को भी दिखाता है. यह उस राज्य की एक चोट पहुंचाने वाली छवि है जिस राज्य ने देश को राष्ट्रपिता दिया हो.
2002 में मुसलमानों के साथ हुई त्रासदी मुसलमानों को गहराई तक विचलित करने वाली थी. उन्हें इस बात का आभास हुआ कि उन्हें धर्मांधता और कट्टरपंथ से उबरना होगा.
मुसलमानों की एकता, लड़के और लड़कियों की शिक्षा और स्वरोज़गार से पैसा कमाने पर ज़ोर दिया जाने लगा. हमारे सर्वे से पता चलता है कि अब ग़रीब मुसलमान भी यहां अपने लड़के और लड़कियों को स्कूलों में पढ़ाने की इच्छा रखते हैं.
ग़रीबी की वजह से वे अपने बच्चों को निजी स्कूलों में नहीं भेज पाते हैं. प्राइमरी स्कूलों में दाखिला लेने की दर ज्यादा है लेकिन सरकारी स्कूलों में शिक्षा की हालत बदतर है.
इनमें से कुछ सेकेंडरी स्तर तक पहुंच पाते हैं तो बहुत कम उससे आगे यूनिवर्सिटी की पढ़ाई कर पाते हैं.
राष्ट्रीय स्तर पर किए गए सर्वे से यह पता चलता है कि प्राइमरी स्कूलों में दलितों और आदिवासियों से ज्यादा मुसलमानों के बच्चों का दाखिला है.
लेकिन मैट्रिक तक आते-आते यह दर काफी कम हो जाती है और स्नातक स्तर पर आते-आते तो बहुत ही कम हो जाती है.
इसकी एक बड़ी वजह सरकारी मदद का नहीं मिलना है. सरकार की ओर से मुसलमानों की शिक्षा को बढ़ावा देने की संभावना बहुत कम है. ख़ासतौर पर तब जब राज्य और केंद्र दोनों ही जगहों पर बीजेपी और आरएसएस का कब्ज़ा हो तो.
ग़रीबी, अशिक्षा और इस राजनीतिक भेदभाव से मुक़ाबला करने का मुसलमानों के पास क्या रास्ता है?
2002 की घटना ने मुसलमानों को अपने समाज की प्रगति के प्रति सजग और गंभीर बना दिया. वो अपने कदमों पर खड़े होने के बारे में सोचने लगे.
क़ुरान ने ज़कात का रास्ता मुसलमानों को दिखाया है. इसके तहत हर मुसलमान अपनी कमाई और पैसे का कुछ हिस्सा ज़रूरतमंदों को दान में देता है.
आम तौर पर उनसे जो भी मांगा जाता है, वे उसे दे देते हैं. गुजरात में हमने कोशिश की है कि ज़कात सबसे गरीब मुसलमानों के शिक्षा और इलाज के लिए दिया जाए.
दस सालों में इससे फ़ायदा उठाने वाले छात्रों की संख्या 58 से 440 तक पहुंच गई है जिसमें से 120 लड़कियां हैं. ये सभी छात्र मेडिकल, पैरा मेडिकल या फिर इंजीनियरिंग के छात्र हैं.
शुरू के दिनों में स्नातक करने वाले छात्र ही थे. अब मुसलमानों में डॉक्टरों और इंजीनियरों की एक छोटी सी तादाद पैदा हो गई.
इनकी आय उनके माता-पिता के आय से कई गुणा ज्यादा है. इसने कई मुसलमान परिवारों की ज़िंदगियों में ग़ज़ब की तब्दीली लाई है.
वडोदरा में साइकिल पर अगरबत्ती बेचने वाले एक शख़्स का बेटा आज वहां का मशहूर फिजिशियन डॉक्टर है. लेकिन इस कहानी का स्याह पहलू यह है कि इस डॉक्टर का भाई बिना किसी सुनवाई के नौ साल से जेल में है.
उसी तरह तीन अनाथ लड़कियां जिन्होंने अपने पिता को 2002 के दंगों में गोधरा के पास खो दिया, केमिस्ट्री और माइक्रोबायोलॉजी में ग्रैजुएशन कर रही हैं.
इस घटना ने राजनीति में मुसलमानों की भागीदारी पर भी सवाल खड़े किए हैं. लेकिन गुजरात जैसे राज्य में या कई और राज्यों में भी हालात यह है कि राजनीति में मुसलमानों को लेकर एक तरह का इस्लामोफ़ोबिया है.
हम आबादी के सिर्फ़ 14 फ़ीसदी हैं और सिर्फ़ चार ऐसे लोकसभा क्षेत्र हैं देश के जहां पर सौ फ़ीसदी मुसलमान आबादी है.
दस ऐसे लोकसभा क्षेत्र हैं जहां मुसलमानों की आबादी 50 से 80 फ़ीसदी है. ऐसे हालात में धर्म आधारित विभाजनकारी राजनीति का क्या मतलब रह जाता है?
मुसलमानों की राजनीति में सक्रिय भागीदारी बीजेपी की ध्रुवीकरण की राजनीति को आसान बना देने के लिए काफ़ी होता है.
ऐसे हालात में उचित यह है कि सीधे तौर पर राजनीति में आने के बजाए सिर्फ़ वोट करने तक अपने आप को सीमित रखा जाए.
हमारा पूरा ध्यान समुदाय के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक उत्थान पर होना चाहिए.
इस मामले में हमें यहूदियों से सीखने की जरूरत है जिन्होंने हिटलर की तानाशाही और क्रूरता को झेलने के बाद इन बातों पर अपना ध्यान केंद्रित किया था.
और धीरे-धीरे एक ऐसा वक्त भी आया कि वे अमरीका और यूरोप की इसराइल को लेकर नीतियों को नियंत्रित करने की स्थिति में आ गए.