जनजीवन ब्यूरो / नई दिल्ली । उत्तर प्रदेश में काफी उहापोह के बाद आखिरकार इंडिया एलायंस के बैनर तले सपा और कांग्रेस के बीच समझौता हो गया है। कांग्रेस 17 सीटों पर लड़ेगी, बाकी की 63 सीटों पर सपा और गठबंधन में शामिल होने वाले अन्य दल ताल ठोंकेंगे। उत्तर प्रदेश में यह दूसरी बार होगा, जब कांग्रेस और सपा एक साथ मिलकर किसी चुनाव में उतरेंगे। 2017 का विधानसभा चुनाव भी दोनों पार्टियां साथ मिलकर लड़ी थीं, लेकिन कोई चमत्कार दिखाने में नाकाम रही थीं। उत्तर प्रदेश के वर्तमान समीकरण को समझें तो इस बार भी इस गठबंधन द्वारा बहुत बड़ा चमत्कार करने की संभावना नहीं है, लेकिन यह तय है कि इंडिया एलायंस कुछ सीटों पर एनडीए एलायंस को कड़ी टक्कर जरूर देगा।
आंकड़ों के जरिए इसे समझने की कोशिश करें तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास इतना जनाधार नहीं बचा है कि वह सपा के साथ मिलकर कोई बड़ा उलटफेर कर सके। कांग्रेस का जनाधार उत्तर प्रदेश में लगातार सिमटता जा रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस उत्तर प्रदेश की 67 सीटों पर चुनाव लड़कर 7.53 फीसदी वोटों के साथ केवल रायबरेली और अमेठी सीट जीत पायी थी, जिस पर क्रमश: सोनिया गांधी और राहुल गांधी सांसद बने थे। 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस 78 सीटों पर लड़ी, उसे मात्र 6.36 फीसदी वोट मिले, और वह केवल सोनिया गांधी की रायबरेली सीट ही जीत पायी। अमेठी जैसी पारंपरिक सीट पर राहुल गांधी को स्मृति ईरानी के हाथों हार का सामना करना पड़ा। विधानसभा चुनाव 2022 में कांग्रेस को बड़े चमत्कार की उम्मीद थी, क्योंकि चुनाव की कमान प्रियंका गांधी वाड्रा के हाथों में था। प्रियंका भी लगातार यूपी में सक्रिय रहीं। कांग्रेस ने ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ से लेकर कई तरह के अभियान चलाये। प्रियंका ने भी कोरोना और हाथरस से लेकर लखीमपुर खीरी तक प्रदेश और केंद्र सरकार को घेरने के लिये सारे घोड़े खोल दिये। इस दौरान सपा के बजाय कांग्रेस ही प्रमुख विपक्षी दल नजर आने लगी। प्रियंका के नेतृत्व में कांग्रेस ने बिना किसी गठबंधन के 399 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, लेकिन जब रिजल्ट आया तब पार्टी मुंह के बल जमीन पर जा गिरी। कांग्रेस को मात्र 2.33 फीसदी वोट मिले, जबकि वह केवल दो सीटें ही जीत पायी। दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी के पास अब अकेले इतना जनाधार नहीं बचा है कि वह भाजपा के मत प्रतिशत तक पहुंच सके। अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा ने चुनावों में कई प्रयोग किये, लेकिन वह भाजपा से पार नहीं पा सकी। उत्तर प्रदेश में सबसे जिताऊ कंबिनेशन सपा और बसपा गठबंधन को माना जाता था, लेकिन 2019 के चुनाव में यह गठबंधन भी भाजपा के विजय रथ को नहीं रोक पाया। इस गठबंधन ने भाजपा की कुछ सीटें कम जरूर कीं, लेकिन जिस चमत्कार की उम्मीद राजनीतिक गलियारों में लगायी जा रही थी, वैसा कुछ नहीं हुआ। 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा साथ मिलकर चुनाव लड़े और केवल 15 सीटों पर ही जीत हासिल कर पाये। बसपा को 10 और सपा को 5 सीट मिली। वोट प्रतिशत की बात करें तो 2019 के चुनाव में भाजपा 49.97 फीसदी वोट के साथ 62 सीटें जीतने में सफल रही। भाजपा की सहयोगी अपना दल को भी 2 सीटें मिलीं। सपा और बसपा गठबंधन को मात्र 37.5 फीसदी वोट से संतोष करना पड़ा। सपा को 18.1 फीसदी वोट शेयर के साथ 5 सीटें मिलीं तो बसपा ने 19.4 फीसदी वोट शेयर के साथ 10 सीटों पर कब्जा जमाया। ऐसे में, सपा और कांग्रेस गठबंधन से यह उम्मीद करना कि कोई बहुत बड़ा चमत्कार कर देंगे, नादानी ही होगी। केवल गठबंधन से चत्मकार होते तो 2019 में भाजपा को इतनी बड़ी जीत नहीं मिलती। जीत के लिये मतदाता का भरोसा जीतना ज्यादा जरूरी होता है। भाजपा की रणनीति देखें तो वह एक चुनाव खत्म होते ही अगले चुनाव की तैयारी में जुट जाती है। भाजपा पांचों साल चुनाव मोड में रहती है। दूसरे दल चुनाव आने का इंतजार करते हैं तब तक भाजपा के कार्यकर्ताओं को पार्टी इतने कार्यक्रम दे देती है कि वह लगातार जनता के बीच में बने रहते हैं। भाजपा पिछले कई सालों से अपने वोट प्रतिशत को 50 फीसदी के पार करने की तैयारी में जुटी हुई है। मोदी के नेतृत्व में भाजपा उन जातियों तक पहुंचने में सफल रही है, जिनकी कम संख्या के कारण दूसरे दल महत्व नहीं देते हैं। दूसरी तरफ, विपक्षी दल केवल गठबंधन के सहारे चुनाव में बड़ी जीत हासिल करने की कोशिश में हैं। सपा और कांग्रेस जैसी पार्टियां केवल चुनाव के समय जनता का भरोसा हासिल करने की कोशिश करती हैं, जिसमें उन्हें बहुत सफलता नहीं मिल पाती है। कांग्रेस और सपा के बीच 2017 के विधानसभा चुनाव में हुआ गठजोड़ बहुत फलदायी साबित नहीं हुआ था। राज्य की 403 सीटों में सपा ने 298 तथा कांग्रेस ने 105 सीटों पर चुनाव लड़ा था। दोनों दलों को मिलाकर 28 फीसदी वोट मिले। सपा को 21.8 तथा कांग्रेस को 6.2 फीसदी मत हासिल हुआ। इसके विपरीत एनडीए गठबंधन को 41.4 फीसदी वोट मिले, जिसमें 39.7 फीसदी वोट अकेले भाजपा को हासिल हुए थे। 2017 में ओमप्रकाश राजभर की सुभासपा एनडीए गठबंधन की हिस्सा थी। 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने नया प्रयोग करते हुए किसी बड़े दल की बजाय छोटे दलों को महत्व दिया और जयंत चौधरी, ओम प्रकाश राजभर, पल्लवी पटेल, केशव देव मौर्य के साथ गठबंधन किया। इसके कारण 2022 के चुनाव में सपा अपना वोट दस फीसदी बढ़ाने में सफल रही। इसके बावजूद योगी आदित्यनाथ को दोबारा सरकार बनाने से नहीं रोक सकी। सपा ने 2017 के 21.8 फीसदी मत के मुकाबले 2022 में 31.5 फीसदी मत प्राप्त किया। सपा गठबंधन को 39 फीसदी के करीब मत मिले, लेकिन भाजपा का मत प्रतिशत पिछले चुनाव के 39.7 फीसदी से बढ़कर 41.8 फीसदी तक पहुंच गया। 2022 में सपा के साथ रहे रालोद और सुभासपा 2024 में एनडीए गठबंधन के हिस्से बन चुके हैं। सपा के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव में उतरे रालोद को 3.08 तथा सुभासपा को 1.03 फीसदी मत मिले थे। यूपी की तीसरी ताकत बसपा लगातार कमजोर होती जा रही है, जिसका एक बड़ा हिस्सा भाजपा की तरफ तथा कुछ हिस्सा सपा की तरफ खिसक रहा है। इस बार बसपा ने अकेले मैदान में उतरने का ऐलान किया है। जाहिर है, ऐसे में भाजपा गठबंधन से सीधा मुकाबला इंडिया गठबंधन ही करेगा। इंडिया गठबंधन के लिए राहत की बात केवल इतनी है कि इस बार मुस्लिम वोटों में बिखराव नहीं होगा। मुसलमानों के सामने सपा और कांग्रेस के रूप में दो विकल्प नहीं बल्कि एक विकल्प है, इसलिए यह तय है कि मुस्लिम बहुल सभी सीटों पर इंडिया एलायंस भाजपा को कड़ी टक्कर देगा। दूसरी तरफ, भाजपा को जाट बहुल सीटों पर इससे फायदा मिलेगा। भाजपा के खिलाफ कोई एंटी इनकंबैंसी नहीं है, लेकिन कई सीटों पर स्थानीय सांसदों से जनता नाराज है। ऐसी सीटों पर अगर प्रत्याशी नहीं बदले गये तो निश्चित रूप से इसका फायदा कांग्रेस और सपा गठबंधन को मिल सकता है। फिर भी सबसे बड़ा सवाल यही है कि जीत का मार्जिन तय करने के लिये सपा और कांग्रेस जनाधार कहां से तलाशेंगे और भाजपा के 50 फीसदी वोटों के पार कैसे जायेंगे?