जनजीवन ब्यूरो
नई दिल्ली। उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने सांप्रदायिक मुस्लिम करार दिया है। आरएसएस के मुखपत्र पांचजन्य में अंसारी के एक भाषण का जिक्र करते हुए उनपर तीखे हमले किए गए हैं । पांचजन्य के अनुसार हामिद अंसारी कहते हैं कि मुसलमानों को बहुसंख्यक समाज से खतरा है? उनका इशारा शायद दंगों की तरफ था, लेकिन दंगे तो ज्यादातर अल्पसंख्यक ही शुरू करते हैं।
लेख में कहा गया है कि उपराष्ट्रपति के बहुचर्चित भाषण से बहुत निराशा होती है। यह किसी सांप्रदायिक मुस्लिम नेता के बयान जैसा लगता है। उपराष्ट्रपति से यह उम्मीद स्वाभाविक है कि वे किसी एक समुदाय विशेष की तरफदारी करने के बजाय सबके हित की बात करेंगे। लेकिन उनके भाषण में यही बात गायब थी।
आइएस, तालिबान और बोको हराम जैसे कट्टरपंथी संगठनों का हवाला देते हुए कहा गया है कि इस्लाम और आधुनिकता के बीच दो ध्रुवों जितनी दूरी है। मुसलमान और आधुनिकता दो अलग ध्रुव की तरह हैं, जो कभी मिल नहीं सकते। लेकिन अंसारी जैसे नेता मुसलमानों से कभी भी यह बात नहीं कहेंगे।
बता दें कि कुछ दिन पहले मजलिस-ए-मुशावरत के जलसे में उपराष्ट्रपति ने मोदी सरकार से मुस्लिमों के कल्याण और उन्हें बराबरी का हक दिलाने पर ध्यान देने की बात कही थी।
लेख में कहा गया है कि उपराष्ट्रपति के मजलिस-ए-मुशावरत के जलसे में दिया गया उनका बहुचर्चित भाषण से बहुत निराशा हुई। उनका भाषण एक सांप्रदायिक मुस्लिम नेता के जैसा है। उपराष्ट्रपति को किसी एक समुदाय विशेष की तरफदारी करने के बजाय सबके हित की बात करनी चाहिए।
सरकार मुसलमानों को हज यात्रा करने के लिए सब्सिडी देती है। ऐसी हालत में समझ नहीं आता कि विशेष अधिकार मिलने पर भी उपराष्ट्रपति को कैसे लगता है कि मुसलमान-अस्मिता को खतरा है? इससे तो बहुसंख्यक हिन्दू समाज को खतरा है। देश के पंथनिरपेक्ष चरित्र को खतरा है।
दंगे की चर्चा करते हुए लेख में कहा गया है कि केवल मुस्लिम सुरक्षा का सवाल नहीं हैं, हिन्दू सुरक्षा का सवाल भी हैं। देश के 7 राज्यों में हिन्दू भी अल्पसंख्यक हैं। इसके अलावा देशभर में हुई इस्लामी आतंकवाद की घटनाओं में सैकड़ों हिन्दू मारे गए हैं। क्या उनका खून पानी है?
हामिद अंसारी ने भाषण में विभाजन का मुद्दा उठाया। कहा कि मुसलमानों को उन राजनीतिक घटनाओं और समझौतों का बोझ भी उठाना पड़ रहा है जो देश विभाजन का कारण बनीं। लेकिन हामिद अंसारी भूल जाते हैं कि मुस्लिम विभाजन के शिकार नहीं, उसकी वजह हैं। उनके इस कारनामे के नतीजे आज सारे गैर-मुस्लिम झेल रहे हैं।
उपराष्ट्रपति के भाषण में आत्मविश्लेषण की कोई इच्छा नजर नहीं आती। सिर्फ वे ही बता सकते हैं कि जो धर्म 1400 साल पुरानी चीजों को जस-का-तस लागू करना चाहता है, उसे किस तरह आधुनिक कहा जाए? उपराष्ट्रपति द्वारा पहचान का मुद्दा उठाने पर संघ ने कहा है कि पंथनिरपेक्ष भारत ने इसकी बड़ी कीमत चुकाई है।
देश में सबके लिए एक ही कानून होना चाहिए था, लेकिन मुसलमानों की मजहबी पहचान बनी रहे इसके लिए समान नागरिक कानून लागू करने के बजाय मुस्लिम पर्सनल लॉ लागू करने की छूट दी गई। किसी भी लोकतांत्रिक देश में कानून के सामने सब बराबर होने चाहिए। लेकिन जब कानून ही अलग-अलग हों तो बराबरी का सवाल ही कहां रह जाता है? मुस्लिम पर्सनल लॉ ने देश के पंथनिरपेक्ष चरित्र को ही विकृत कर दिया।